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अब भ० महावीर स्वामी के दाह ज्वर आदि के लीये शोचा जाय तो वहां मांसक का अर्थ पाक ही समुचित है । देखो(१) स्निग्धं उष्णं गुरु रक्तपित्तजनकं वातहरं च मांसं ॥ सर्व मांसं वातविध्वंसि वृष्यं ॥
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मुरघा का मांस उष्णवीर्य है ।
इत्यादि वैद्यक वचनो से यहां मांस सर्वथा प्रतिकुल ही माना जाता है
(२) प्राचीन काल में फलगर्भ और बीज के लीये मांस और अस्थि शब्द का विशेष प्रयोग किया जाता था, जिनागम और वैद्यक ग्रन्थो में ऐसे अनेक प्रयोग उपलब्ध हैं । जैसा कि -
बिष्टं स-मंसकडाहं एयाई हवंति एगजीवस्स ॥ ९१ ॥ टीका- 'वृन्तं समंसकडा हं' ति - समांसं सगिरं तथा कदाह एतानि त्रीणि एकस्य जीवस्य भवन्ति - एकजीवात्मकानि एतानि त्रीणि भवन्तीत्यर्थः ॥
( - श्री पन्नवणासूत्र पद १. सूत्र २५, पृ० ३६, ३७): से किं तं रुक्खा ? रुक्खा दुविहा पन्नता, तं जहा एग द्विया य बहुबीयगाय । से किं तं एगड्डिया ? अणेगविहा पत्ता, तं जहा
एगट्टिया
निबं व जंबु कोसंब, साल अंकोल पीलु सेलू य । सल्लइ मोयइ मालुय, बउल पलासे करंजे य ॥ १२ ॥ पुतंजीवय रिट्ठे, विमेलए हरिइए य भिल्लाए । बेभरिया खीरिणि, बोधव्वे धाय पियाले || १३ || पुइय निंब करंजे, सुण्हा तह सीसवा य असणे य । पुण्णाग णाग रुक्खे, सिरिखण्णी तहा असोगे य ॥ १४॥ जेयावणे तपगारा। एएसि णं मूला वि असंखिज जीविया, कंदा विखधावितया विसाला वि पवाला वि पत्ता पत्तेयजीविया, पुप्फा अणेगजीविया फला एगडिया || से तं एगट्टिया ||
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( पन्नवणा सूत्र पद - १ सूत्र - २३ पृ० ३१ जीवाभिगम सूत्र प्रति० १.
सूत्र २० पृ० २६ )
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