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जैन-यह सप्रमाण पाया जाता है कि-वस्तुका विकास और विकार ये क्रमशः होते हैं । बाम के धड़ाके की तरह वे होते नहीं है। कुदरत को मानने वाले भूस्तर शास्त्री, शरीरशास्त्री, विज्ञानके अध्यापक और आत्मध्यानी ये सब उस बात की ताईद करते हैं।
करीब २ अठारह कोटाकोटि सागरोपम काल से जो संस्कार चला आता था उसको बदलना यह कोई मामुली बात नहीं थी
और वह विना भगवान के कोई दूसरेसे होने वाला नहीं था। इस हालत में कोई घटना पूर्वकालीन रीति के अनुसार बन जाय वह भी संभवित था।
भगवान् ऋषभदेवने सब में उचित संस्कार दे दिया, मगर जनता अक्षता व भद्रिकताके कारण उसका ठोक २ लाभ न उठा सके वह भी संभावित था।
भगवानने सहोदरी से ब्याह करनेकी मना की, मगर भरतचक्रीने उसका अर्थ इतना ही किया हो कि सीर्फ अपनी ही युगलिनी या सहोदरीसे व्याह करना नहीं चाहिए ।
असंख्यात वर्षों से चली आइ रूढिमें सुधारा किया गया मगर विकास क्रमके नियमानुसार शुरु २ में मना का इतना ही अर्थ लिया गया हो तो उसमें आश्चर्य भी क्या है ? ।
यह तो सिर्फ उस समय की परिस्थिति के अनुकुल विचार हुआ।
मगर यह बात निश्चित है कि-भरतचक्रवर्ती ने सुदरी से व्याह करने का शोचा ही था, किन्तु यादमें विवेकोदय होने से व्याह किया नहीं है, और सुंदरी ने मुनिपणा का स्वीकार किया है।
दिगम्बर-तीर्थकरके माता-पिता खाते पीते है मगर निहार करते नहीं है।
जैन-खाने पीने वाला निहार न करे, यह बात कहाँ तक उचित है ? उसका समाधान केवली प्रकरण में हो चुका है। उसको पसीना, श्वासोश्वास, थूकना, रोग, पेशाब और संतान वगेरेह २ होते हैं ।
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