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(४) एकादश बाकी रही, वेदना उदय से कहीं, बाईस परीषह उदय, ऐसे उर आनिये ॥२५॥
बाईस परिषह, दि. जैनसिद्धान्त संग्रह पृ० १७७ इस प्रकार केवली भगवान को वेदनीय कर्मके उदय से ११ परिषह होती है। इन ११ परिषह का स्वरूप निम्न प्रकार है।
छप्पय१ क्षुधा २ तृषा ३ हिम ४ उश्न ५ डंसमसक दुखभारी। ६ निरावरण तन ७ अरति ८ वेद उपजावन नारी ॥ ९चरया १० आसन ११ शयन १२ दुष्ट वायक १३ वध बन्धन। १४ याचे नहीं १५ अलाभ १६ रोग १७ तृण फरस होय तन ॥ १८मलजनित १९ मान सनमान वश२० प्रज्ञा २१ और अक्षानकर। २२ दरशन मलीन वाईस सब साधु परीषह जान नर ॥१॥ दोहा-सूत्र पाठ अनुसार ये, कहे परीषह नाम ।
इनके दुख जो मुनि सँह, तिन प्रति सदा प्रणाम ॥२॥ १ क्षुधापरीषह-अनसन ऊनोदर तप पोषत, पक्षमास दिन बीत गये हैं। जो नहीं बेन योग्य भिक्षाविधि, सूख अङ्ग सब शिथिल भये हैं। तब तहाँ दुस्सह भूखकी वेदन, सहत साधु नहीं नेक नये हैं। तिनके चरणकमल प्रति प्रति दिन, हाथ जोड़ हम शीश नमे हैं ॥३॥
२ तृषापरिषह-पराधीन मुनिवर की भिक्षा, पर घर लेय कहैं कुछ नाहीं। प्रकृति विरुद्ध पारण भुजत, बढत प्यास की त्रास तहां ही॥ ग्रीषमकाल पित्त अति कोपे, लोचन दोय फिरे जब जाहीं । नीर न चहैं सह ऐसे मुनि, जयवन्ते वरतो जगमाहीं ॥४॥
३ शीतपरीषह-शीत काल सब हो जन कम्पत, खड़े तहाँ बन वृक्ष डहै हैं । झंझा वायु चलै वर्षाऋतु, बर्षत बादल झुम रहे हैं ॥ तहां धीर तटनी तट चौपट, ताल पाल पर कर्म दहे हैं। सहैं संभाल शीतकी बाधा ते मुनि तारणतरण कहे हैं ॥५॥
४ उष्णपरीषह-भूख प्यास पीड़े उर अंतर, प्रजुलै आंत देह सब दागै। अग्निस्वरूप धूप ग्रीषम की ताती वायु झाल सी लागै॥ तपै पहाड ताप तन उपजति, कोपै पित्त दाह ज्वरजागै। इत्यादिक गर्मा की बाधा, सह साधु धीरज नहिं त्यागें ॥६॥
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