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दोनोंमें ही एक के बढ़ने से दूसरे का ह्रास होता है, किन्तु शान के बढने से या घटने से भूख की हानि वृद्धि होती नहीं है।
भूख अज्ञताका फल नहीं है, इसी लोए ज्ञान या अज्ञान से उसका कोई सम्बन्ध नहीं हैं । आहार पाने से या भूख का कारण नष्ट होने से भूख शान्त हो जाती है, किन्तु ज्ञान बढ़ने से भूख मीटती नहीं है । ज्ञान होने से अज्ञानता नष्ट होती है और उप. योग शक्ति प्राप्त होती है, भूख दबती नहीं है ।
वास्तवमें शानावरणीय कर्म और भूख का परस्पर सहकार भाव नहीं है।
दिगम्बर-खाने से ज्ञान दब जायगा।
जैन-महानुभाव ! खाने-पीने से सामान्य या विशेष प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई शान दवता नहीं है । क्षायिक केवलज्ञान किसी से नहीं दवता है।
दिगम्बर-केवली भगवान को अनन्त दर्शन है ।
जैन-दर्शनावरणीयकर्म और भूख का परस्पर में कोई सहकार भाव नहीं है, खाना और देखना इनमें कोई सम्बन्ध नहीं है ।
दिगम्बर-मायालोहे रदिपुव्वाहार (गो० जी० गा० ६) इस कथनानुसार "आहार" मोह विपाक का फल है, कषाय होता है जब आहार होता है, तो माया और लोम न होने से आहार नहीं रहता है । अतः अकषायी केवली भगवान् आहार न करें।
जैन-अधिक मायावी या बडा लोभी ही आहार लेवे, ऐसा देखने में नहीं आता है । कपटी भी खाता पीता है, सरल भी खाता पीता है, लोभी भी स्वाता पीता है, संतोषी भी खाता पीता है। कहीं कपटी या लोभी भी कम खाता है और सरल या संतोषी अधिक भी खाता है। इस प्रकार माया लोभ और आहार क्रिया में किसी भी प्रकार का अन्वय-व्यक्तिरेक सम्बन्ध नहीं है ।
दिगम्बर-खाना प्रमाद है अतः छठे गुणस्थानके ऊपर खाना बंद हो जाता है।
जन-छठे गुणस्थानवी जीव आहारक द्वय, स्त्यानधि प्रचलाचला और नीद्रानीद्रा इन ५ प्रकृतिओं का उद्यविच्छेद
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