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(९) आ. श्रुतसागरजी तीर्थकरों के अतिशय में बताते हैं कि कवलाहारो न भवति, भोजनं नास्ति ।
अर्थ - अतिशय के कारण तीर्थंकर भगवान को कवलाहार होता नहीं है, वे भोजन करते नहीं है ।
अर्थात् तीर्थकर सिवाय के केवली भगवान कवलाहार लेते हैं, भोजन करते हैं ।
( बोधप्राभृत गाथा ४२ की टीका, पृष्ठ ९९ ) (१०) कम्मइय कायजोगो, विग्गहगइ समावण्णाणं, केवलीणं वा समुग्धाद गदाणं । ६८ ।
( षट्खडागम, सूत्र ६८, पृ० २९८ )
(११) आहारए इंदिय - पाहुड़ि जाव सजोगि केवलित्ति
( पट्खेडागम, सूत्र १७६ पृ० ४०९ ) (१२) अणाहारा चदुसु ठाणेसु विग्गहगइसमावण्णाणं, केचलीणं वा समुग्धादगयाण, अजोगिकेवली, सिद्धा, चेदि ।
( षट्खडागम, सूत्र १७७ पृ. ४१० ) दिगम्बर शास्त्रों के उक्त प्रमाण केवली भगवान के कवलाहार की गवाही देते हैं ।
सारांश - केवली भगवान कवलाहार करते है ।
दिगम्बर- यदि दिगम्बर शास्त्र ही केवलिआहार का विधान करते हैं तो निःशंक मानना पडता है कि केवली कवलाहार लेते हैं। क्या उनको रोग भी होता है ?
जैन- रोग होता है इस लिए तो केवली भगवान को अशाता का उदय माना जाता है, रोग परिषद भी माना जाता है ! हृां तीर्थंकरों को अतिशय के जरिये रोग होने की मना है, किन्तु केवली भगवान को रोग होना सम्भव है, वेदनीय भोगना ही पड़ता है ।
दिगम्बर- अगर केवली भगवान आहार ले तो निहार भी करे । जैन - यह भी देह प्रवृत्ति है. आहार और निहार ये दोनों सहकारी हैं । केवली भगवानको श्वासोश्वास है, मलपरिषह है: तीर्थकरके सिवाय केवली को स्वेद है, छींक भी होती है, ये भी निहार ही हैं ।
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