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व्यवहार शुद्धिके लिये और तीर्थकर पदकी प्रांतष्ठा के लिये भगवान् ऋषभदेवका प्रदक्षिणापूर्वक विनय किया। केवलीनी साध्वी “पुष्पचूला" अरण्यक गुरु को आहार पानी ला देती थी।
केवली भगवान प्रश्नकारको पूर्व भव बताते हैं, विहार करते है, दिक्षा देनेको पधारते हैं। केवलीनी साध्वी "मृगावती'ने अपनी गुरुणीजीसे सर्पका निवेदन किया और उनके लीए केवल ज्ञान पानेका पूर्व पूर्वतर कारग खड़ा कर दिया।
एक छमस्थ मुनिजीने "चन्डरुद्राचार्य" गुरु को कंधेसे उठा कर विहार किया। उसी हालतमें शिष्य को केवलशान हो गया इस पर भी उसने गुरु को उठा ही रक्खा और विहार जारी रक्खा, बाद में उस निमित्तसे गुरु को भी केवलज्ञान हुआ। यहाँ विनय, व्यवहार शुद्धि, अवश्यंभावी, स्वनिमित्त और चर्यापरिषह वगैरह सब मिले हुए हैं।
___ कपील केवलीने भी कुछ विशेष निमित्तरूप बनकर ५०० चौरोंको प्रतिबोध दिया।
दिगम्बर-श्वेतांबर मानते हैं कि-कपिल केवलीने चारों को प्रतिबोध देने के लिये नाच किया था ।
जैन-केवलीओं की प्रवृत्ति बेकार नहीं होती हैं । उनकी प्रवृत्ति फल सापेक्ष होती है देखिए--
दिगम्बर मानते हैं कि ऋषभदेव भगवान् शानी थे फिर भी दीक्षा के बाद ६ माह तक आहार के लिये फिरे ।
तीर्थकर सामोसरन में जाकर बैठते हैं। स्वर्ण कमल पर विहार करते हैं।
कपिल केवलीने भी नाच नहीं किया. किन्तु प्रतिवोध के लिये जो हाथ पैर की प्रवृत्ति की वह छद्मस्थ के लिये तो नाच ही है।
केवलीओं का अवश्यंभावी निमित्त हो वहां उनकी वैसी ही प्रवृत्ति होती है। वे विहार करते हैं, वैसे ही हाथ पैर को हिलाते हैं । यह औदयिक कर्म प्रवृत्ति है, केवली भगवान को अस्थिर नाम कर्म भी उदय में रहता है ।
दिगम्बर-श्वे० मानते हैं कि-कुर्मापुत्र केवली, केवल होने पर भी कुछ काल तक घर में ठहरे थे ।
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