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[ ११.] न मुख्यन्ते भवात्तस्मात् ते ये लिङ्गकृताग्रहाः ॥८७ ॥ पुरुष या नग्न ही मोक्ष में जाते हैं इत्यादि लिंग के आग्रह से संमार बढ़ता है।
जाति लिंग विकल्पेन, येषां च समयाग्रहः । ते न आप्नुवन्त्येव, परमं पदमात्मनः ।। ८६ ।। मैं ब्राह्मण हूं मैं पुरुष हूं या नग्न हूं ऐसा प्राग्रह मोक्ष बाधक है।' ५-पा० नेमिचन्दमूरि "स्त्री मोक्ष' का क्रम बताते हैं
(गोम्मटसार) आहारं तु पमत्ते, तिथं केवलिणि. मिस्सयं मिस्से । प्रमन गुण स्थान में श्राहारकद्विक होता है।
(गोग्मद सार कर्मकाण्ड गा० २०.) अपमत्ते सम्मत्तं. अन्तिम तिय संहदीय ऽपुष्वाम्म । छच्चेव णोकसाया, अणिट्टिय भाग भागेसु ॥ २६८ ॥ वेदातय कोह माणं, माया संजलण मेव ॥२६६ ॥ अर्थ ७ अप्रमत्त गुण स्थान में सम्यक्त्व प्रकृति और अंत के तीन संहनन का, ८ अपूर्व गुणस्थान में हास्यादि छै कषायों का तथा । अनिवृत्ति गुण स्थान में निन वेद और तीन कषायों का उदय विच्छेद होता है।
(गोम्मटसार कर्मकांड गा० १६८-२६६) माने-पुरुष स्त्री और नपुंसक ये तीनों 14 गुणस्थान को पाते हैं तब उनके वेदों का उदय विच्छेद है । बाद के गुण स्थान में उनको अपने २ वेद कषाय का उदय नहीं होता है उनको नाम 'कर्म का उदय विद्यमान होने के कारण शरीर की रचना मात्र रहती है और वे अवेदी माने जाते हैं।
पज्जवे वि इत्थी बेदाऽपज्जति परिहीयो ॥ ३० ॥
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