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[ १३४ ]
भाभावादा। श्रोघपमाणं ण पाति त्ति जाणावणटुं सुत्ते संखन णिसो को। णपुंसयवेद उवसामगा पंच ५, खवगा दस १०॥ इथिवेद णपुंसय वेदे पमत्ता अपमत्ता च ऐत्तिया चेव होति त्ति संपहि ( संप्रति ) उवएसो णत्थि । पृ० ४१६ । __ अर्थ-प्रमत्त संयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्ति बादर सांप रायिक प्रविष्ट उपशमक और क्षपक गुण स्थानक तक (नपुंसक ) जीव द्रव्य प्रमाण की अपेक्षा कितन हैं ? संख्यात हैं । ॥ १३० ॥ पृ०४८ ॥
मूलम्-सजोगिकवली अोध ॥ सू० १३४ ॥ टीका-सव्यपरत्थाण पथदं ( अल्पवहुत्वं प्रकृतं ) । सम्वत्थावा रणपुंसय वेदुधसामगा. ( सि ) खवगा संखज गणा । इथि दुव. सामगा तत्तिया चव, तसिं खवगा संखजगुणा । पुरिस बदुवसा मगा संखज गुणा । तसिं खबगा संखज गुणा । गापुंसय वंद। अमत्त संजदा संखजगुणा. तम्हि चव पमत्तसंजदा संखज गुणा, इस्थिवदे अप्पमत संजदा संखज गुणा, तम्हि चर पमत्तसंजदा संखेन्ज गुणा । सजोगि कवली संखज्ज गुणा । (पृ ४२२)
इन सव सूत्र पाठो से स्पष्ट है कि-पुरुष १८ स्त्री २० और नपुंसक १० क्षपक श्रेणी करते हैं एवं मोक्ष में जाते हैं।
(षट खंडागम-जीवस्थान-द्रध्यप्रमाणुगम,
धवला टीका, मुद्रित पुस्तक ३ रा) वीसा नपुंसगवेया, इत्थीवेया य हुंति चालीसा। पुंवेदा अडयाला, सिद्धा इक्कम्मि समयाम्मि ॥
अर्थ-एक समय में एक साथ में षंढ २०, स्त्री ४०, और परुष ४८ सिद्ध होते हैं । माने-स्त्री और नपुंसक भी मोक्ष में जाते हैं।
. इन सब पाठों से निर्विवाद सिद्ध है कि दिगम्बर शास्त्र स्त्री. दीक्षा और स्त्री-मुक्ति के पक्ष में हैं।
दिगम्बर-यह तो मानना ही पड़ेगा. कि स्त्री केवलिनी बनती है तो तीर्थंकर भी बन सकती है !
जैन-यद्यपि एसा होता नहीं है किन्तु अनन्त काल व्यतीत होने के बाद कभी स्त्री भी तर्थिकर हो जाती है । मगर उस घटना
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