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ब्राह्मण धर्म की पूरी छाप लगी हुई मालूम होती है, इसलिये उन्होंने ( दिगम्बरी श्राचार्यों ने) शूद्रों से घृणा, श्राचमन आदि को जैनियों में भी रखना चाहा है ।
( पं० परमेष्ठीदास जैन न्यायतीथंकृत चर्चा सागर समीक्षा पृ० ५०-५१ )
वस्तुतः दिगम्बर समाज में शूद्रमुक्ति के निषेध के लिये जो मैमित्तिक व्यवहार था उसको, बादके विद्वान् और खास करके भाषा टीकाकार और ब्राह्मणीय प्रभाव से प्रभावित ब्रह्मचारी वगैरहों ने एक जिनाना रूप बना लिया ।
परमार्थ से जैनदर्शन में शूद्रमुक्ति की मना नहीं है ।
दिगम्बर - - श्वेताम्बर बाहुबली को अनार्य मानते हैं ।
जैन -- यह झूठ बात है । कोई भी जैन शास्त्र बाहुबली को नाये नहीं मानता है । काल के प्रभाव से कर्मभूमि और अकर्मभूमिका परिवर्तन होता है। वैसे ही श्रार्यभूमि और यवनभूमि का परिवर्तन हो सकता है । वास्तव में बाहुबली यवन नहीं था, और वह भूमि भी यवनभूमि नहीं थीं। बाहुबली की राजधानी के खंडहर संभवत: रावलपिंडी से करीब २० मील उत्तर में टक्सिला के नाम से विद्यमान है ।
दिगम्बर - चौथे आरे में आर्य भूमि में म्लेच्छों का निवास नहीं माना जाता है।
जैन- यह आपकी मान्यता कल्पना मात्र है । दिगम्बर विद्वान तो यहां चौथे आरे में म्लेच्छों का होना मानते हैं । प्रमाण देखिये |
१ - चारित्रसार में खदिर भील और समाधिगुप्त मुनि का
अधिकार है ।
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