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[ ९९ ] चित्ता सोहि ण तसि, दिल्लं भावं तहा सहावेण । विज्जदि मासा तेसिं, इत्थीसु ण संकया झाण ॥ २६ ॥
(मा० कुम्भकुन्दकृत सूत्र प्रामृत, गा• ११) गाग्गो देवो णग्गो गुरु णग्गो पई तम्हा इत्थीणं । ण होदि वित्तसोही, विणा सोहि कधं चरणं ॥१॥
(लोकोक्ति) जैन-महानुभाव ! त्रुटियां तो जैसी पुरुष में हैं वैसी ही स्त्री में हैं, फिर सिर्फ स्त्री ही मोक्ष में न जाय, यह क्यों ? तीर्थकर की मातायें, ब्राह्मी वगैरह अर्जिकार्य और सीता वगैरह सतीयां ये सब पवित्रता की आदर्श मूर्तियां है, सीताजी ने अग्नि प्रवेश किया इत्यादि बलिदान कथायें स्त्रियों की सात्त्विकता का गान करती है । मान-स्त्री में ऐसी कोई त्रुटी नहीं है कि जो मोक्ष की बाधक हो।
जिस समाज में पूजनीय तीर्थकर भगवान की शास्त्रोक्त चंदन पूजा वगैरह को देखने मात्र से ही ध्यानभंग-अस्थिरता महसूस होती है. उस समाज में नग्नता के कारण भी अस्थिरता होने का प्राक्षप किया जाय तो संभावित है। किन्तु सास्त्रियों की कुरबानी सोची जाय ता उक्त आक्षेप निर्मूल हो जाता है।
दिगम्बर-स्त्रिों में "अनृतं, साहस माया" इत्यादि स्वाभा. विक दूषण रहे हैं, इसका क्या किया जाय ?
जैन-स्त्रीसमाज में अधिक अज्ञानता के कारण ऐसा हो भी सकता है। किन्तु व दुषण तो पुरुषों में भी काफी पाये जाते हैं। अधमाधम जीवन के लिये मेघमाली, दृढ़प्रहारी, अखाई नमुचि मंत्री, मुनिद्वेषी पालक, अलाउद्दीन वगैरह अनेक दृष्टांत मौजूद हैं ।
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