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दिगम्बर मुनिओं को जगत के सामने निंद्य कलंकित जाहिर करती है, इस भूल को उसे सुधार लेना चाहिये । “कहिं विसमा” को झूठा जाहिर कर देना चाहिये और दिगम्बर मुनिमंडली को इस निन्दनीय आक्षेप से बचा लेना चाहिये।
यदि दिगम्बर शास्त्र छटे गुणस्थान में द्रव्य स्त्रीवेद ओर द्रव्य नपुंसक वेद का उदय विच्छेद और नवमें गुणस्थान में तीनों भाष वेदका उदय विच्छेद बताते जब तो उन दिगम्बर मुनिओं के लिए तीनों वेद का उदय या कर्हि समा कहिं विसमा मानना उचित ही था। मगर श्रा० नेमियन्द्रजी डंके की चोट एलान करते हैं किमरद को नवमें गुणस्थान तक पुरुष वेदका उदय होता है, स्त्री बेदका उदय तो उसे कभी भी नहीं होता है (गा० ३०० ) एवं स्त्री को नव में गुणस्थान तक स्त्री वेद का उदय होता है, उसे कभी भी पुरुष वेद या नपुंसक वेद का उदय होता ही नहीं है ( गा० ३०१)
अतः-पुरुष को तीनों वेद का उदय व वेदपरावर्तन मानना यह दिगम्बर शास्त्रों से खिलाफ सिधांत है। वास्तविक बात यही है कि-पुरुष स्त्री व नपुंसक उपशम या क्षपक श्रेणी से नवमें गुणस्थान को पाते हैं वहां तक उन्हें स्वस्ववेदोदय रहता है। .
महान् व्याकरण निर्माता दि० प्रा० शाकटायन वेदकषाय के लिये व्यवस्था करते हैं, जिसमें भी वेद परिवर्तन को तर्कणा से भी अग्राह्य बताते हैं देखिये। स्तन जघनादि व्यंगे, स्त्री शब्दोऽर्थे न तं विहायैषः दृष्टः क्वचिदन्यत्र, त्वग्निर्माणकवद् गौणः ॥ ३७॥ 'आषष्ठया स्त्री' त्यादौ, स्तनादिभिस्त्रीस्त्रिया इति च वेदः स्त्रीवेदस्व्यनुबन्धः, पन्यानां शतपृथत्वोक्तिः ॥ ३८ ॥
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