________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
दिगम्बर शास्त्रों में भी स्त्री के असहयोगी कुछ बताये गये हैं। जैसा कि
वेदा हारोत्तिय, सगुणोध णवरं संढ थी खवगे । किएह दुग-सुहतिलेसिय चामवि णं तित्थयरसत्तं ॥ अर्थ-वेद से श्राहार तक की मार्गणाओं में स्वगुण स्थान की सत्ता है विशेषता इतनी ही है कि क्षपक श्रेणी में चढ़ने वाले नपुंसक स्त्री और पांच लेश्या वाले मिथ्यात्वी को सत्ता में तीर्थकर प्रकृति नहीं होती है । माने स्त्री क्षपक श्रेणी में चढती है किन्तु तीर्थकर नहीं बनती है।
(गोम्म० कम्म गा० ३५४) मणुसिणी पमत्तविरदे, आहार दुगं तु णत्थि णियमेण ।
(गोम्मट सार जीव कांड गा० ७१५) अर्थ-मानुषीणी छटे गुण स्थान को पाती है किन्तु उसको आहारकाद्विक (पं० गोपालदासजी वरैया के भाषा पाठ के अनुसार आहारक शरीर अंगोपांग ) नहीं होता है ।
वेदाहारोत्तिय सगुण ठाणाण मोघ श्रालाओ। णवरिय संढि-त्थीणं, णत्थि हु आहारगाण दुगं ॥ अर्थ-वेद से श्राहार तक की १० मार्गणाओं में स्व व गुण स्थान के अनुसार आलावा होते हैं । फरक इतना ही है कि नपुं. और स्त्री को आहारकद्विक (आहारककाययोग आहारक मिश्र. काय योग, भा० टी०) नहीं है।
माने स्त्री छटे गुण स्थान में जाती हैं, किन्तु उसे आहारक द्विक नहीं होता है।
यहां श्राहारक और तीर्थकर प्रकृति के निषेध करने पर भी दीक्षा क्षपकश्रेणी या केवलज्ञान का निषेध नहीं किया है। कारण
For Private And Personal Use Only