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न च पुंदेहे स्त्रीवेदोदयभावे प्रमाणमङ्गं च । भावः सिद्धौ पुंवत्, पुंसोऽपि न सिध्यतो वेदः || ३६ || पुंसि स्त्रियां स्त्रियां पुंसि तच तथा भवेद् विवाहादिः । यतिषु न संवासादिः स्याद्गतौ निष्प्रमाणेष्टिः ॥ ४२ ॥ अनडुह्या नड़वाहीं, दृष्टवानड़वाहमनडुहारूढम् । स्त्रीपुंसेतरवेदो, वेद्यो नानियमतो वृत्तेः ॥ ४३ ॥ नाम तदिन्द्रिय लब्धेरिन्द्रियनिवृत्तिमिव प्रमाद्यङ्गम् । वेदोदयाद् विरचयेद् इत्यतदड़ो न तद्वेदः ॥ ४४ ॥ या पुंसि च प्रवृत्तिः पुंसि स्त्रीवत् स्त्रिया स्त्रियां च स्यात् । सा स्वकवेदात् तिर्यक्वद लाभे मत्तकामिन्याः || ४५ ॥
अर्थात्-वेद कषाय का परिवर्तन नहीं होता है । पुरुष को स्त्री वेदोदय नहीं होता है । श्रतएव कीसी भी वेद के द्रव्यभाव भेद नहीं हैं स्त्री की शरीर रचना यह नामकर्म का ही भेद है । उसके अस्तित्व में केवलज्ञान हो सकता है एवं स्त्री मोक्ष की अधिकारिणी है।
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दिगम्बर—स्त्री को पहिले के "तीन संहनन" का अभाव है अतः मोक्ष नहीं मिलता है। देखिए
सन्ती छ स्संहडगो, बज्जदि मेघं तदोपरं चापि । सेवट्टादि रहितो, पण पण च दुरेग संहडणो ॥ ३१ ॥ अंतिम तिग संहडण स्मुदयो पुरा कम्मभूमि महिलाणं । आदिम तिग संहडणं, यत्थिति जिहिं विदिहं ॥ ३२ ॥ ( गोम्मटसार कर्मकांड गा० ३१, ३) 'माने स्त्रियों को युगलिक काल में पहिले के तीन सहमन होते हैं पीछे के तीन संहनन नहीं होते हैं बाद में कर्मभूमि होते
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