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से नाम कर्म है, अघातिया कर्म हैं, अतएव ये तीनों प्रकार के औदारिक शरीर केवलज्ञान के बाधक नहीं हैं ।
दिगम्बर - "वेद कपाय नोकर्म" तो सामनेवाली व्यक्ति का शरीर भी हो सकता है ।
जैन — अपने शरीर को छोड़कर सामनेवाली व्यक्ति के शरीर को "नोक" मानना यह भी मनमानी कल्पना ही है । इस कल्पना के आधार पर तो यह भी मानना अनिवार्य होगा, कि कभी स्त्री-रमच्छा और पुरुष - रमणेच्छा इन दोनो विरोधी इच्छाओं का नोक "द्रव्य पुरुष" ही हो । मगर ऐसा माना जाता नहीं है, अतः वह कोरी कल्पना ही है । वास्तव में सामन वाली व्यक्ति के बजाय अपने इन शरीरों को "नोकर्म्म" मानना, और " द्रव्य वेद कषाय" न मानना यही बात दिगम्बर आचार्यो को अभीष्ट है । इसके अलावा द्रव्य वेद और भाव वेद के बंध कारण कौन २ हैं ? यह समस्या भी खड़ी हो जायगी, श्रतएव दिगम्बर श्र० नेमिचन्द्रजी ने स्पष्ट कर दिया है कि "तां खोकम्म दव्य -कम्मं तु" । ( गो० गा० ७६ )
दिगम्बर- [--पारण समा कहिं विसमा' गो० जी० गा० २७० इस पाठ से शरीर और वेदों में विषमता भी मानी जाति है । मानपुरुष को पुरुष- - वेदोदय होता है. स्त्री- वेदोदय होता है और नपुं - सक वेदादय होता है। इसी प्रकार स्त्री को एवं नपुंसक को भी तीनों प्रकार का वेदोदय होता है। सबको तीनों तरह की भावनायें महसूस होती है ।
जैन -- यह बात भी कल्पना रूप ही है, दिगम्बर शास्त्र भी इसे नामंजूर करते हैं ।
इतना हो सकता है कि कामांध व्यक्ति सजातीय विजातीय का ख्याल न रक्खे और अप्राकृतिक प्रवृति करे, किन्तु उनके
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