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इतना ही नहीं चौदहवें गुणस्थान में भी अन्त समय के पूर्व तक इसका "उदय" बराबर चला जाता है।
जैसा कि-गोमट० कर्म० गा० २७३,
अस्तित्व [ सत्ता] तो नीच गोत्र का भी केवलज्ञान प्राप्त करने के बाद तेरहवें गुणस्थान में भी बना रहता है, तथा चौदहवें गुणस्थान में भी अन्त समय के पूर्व तक पाया जाता है । यथा गो० क० गा० ३३६।
(पा. सूरनभानजी वकीक का लेख 'भनेकान्त' ५० २ कि. । पृ. ३१
१४-गोत्रकर्म का बंधादि कोष्टक 11, १२, १३ गुणस्थान में १४ वे गुणस्थान में बंध.
बंध ०-० उदय ३
उदय ३-३ सत्ता २
सत्ता २-३ [ पृ० २१४] स्थान | गोत्र उदय गोत्र सत्ता | पृ० २१६ गुण० ३ १
२ ॥ २२० गुण १४ १ २-१ ।
(मोक्षमार्ग प्रकाशक भा०२) १५-अनंग सेना वेश्याने वेश्यावृत्ति छोड़कर जैनधर्म स्वीकार करके स्वर्ग पाया । मछली खानेवाले धीवर मृगसनने यशोधर मनि से व्रत ग्रहण किये । वेश्याल भ्पटी अंजन चोर उसी भव सद्गति को प्राप्त हुआ। मांसभक्षी मृगध्वज और मनुष्यभक्षी शिवदास भी मुनि होकर महान पद को प्राप्त हुना। चाण्डाल की अन्धी लडकी श्राविका बनी । वसुदेव और म्लेच्छ कन्या जरा के पुत्र जरत कुमारने मुनिदीक्षा ली थी। विद्युत्चोर मुनि हुआ। वगैरह २ अनेक दृष्टान्त मिलते हैं।
(पं० परमेशोराय यावतीर्थ कृत सैनधर्म की सदारता)
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