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[ ८४ ] जीण वस्त्र यथात्मानं न जीणं मन्यते तथा । जणेि स्वदेहे प्यात्मानं, नजीणं मन्यते बुधः ।। ६४ ॥ यहाँ पर उतरार्ध ऐसा भी बन सकता है कि
शूद्र देहे तथात्मानं न शूद्रं मन्यते बुधः जीर्ण वस्त्र होने पर उसकी आत्मा जीर्ण नहीं मानी जा सकती है (शूद्र देह होने से उसकी आत्मा शूद्र नहीं हो सकती है )
नयत्यात्मान मात्मैव, जन्म निर्वाण मेव च ।। ७५ ॥
आत्मा ही आत्मा को संसार में फंसाना है और मोक्ष में ले जाता है।
जाति देहा श्रिता दृष्टा, देह एवात्मनो भवः ।। न मुच्यन्ते भवात्तस्मात् ते ये जाति कृताग्रहाः ॥ ८८ ॥ ब्राह्मण ही मोक्ष को पाता है इत्यादि जानि के आग्रह रखने वाला संसार में बुरी तरह भटकता फिरना है।
जानि लिंग विकल्पेन, येषां च समयाग्रहः । तेपि न आप्नु वन्त्येव, परमं पदमात्मान : ॥८६॥ मैं ब्राह्मण हूँ, में नग्न हूँ, दिगम्बर हूँ, एसा आग्रह मोक्ष का बाधक है परम पद प्राप्ति में गेड़े लगाते है ।
( आ० पूज्यपाद कृत समाधि शतक) न जातिगर्हिता काचित् , गुणाः कल्याण कारणं । व्रतस्थमपि चांडालं, तं देवा ब्राह्मणं विदुः ।। कोई भी जाति निन्दनीय नहीं है, गुण ही कल्याण करने वाले होते हैं । चांडाल-भंगी भी व्रत धारी होतो ब्राह्मण के समान है।
चिन्हानि विटजातस्प, संति नांगेषु कानिचित् । अनार्य माचरन् किंचित् , जायते नीच गोचरः ।।
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