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[८८ ] नुयोग की अपेक्षा जन्मतः कोई गोत्र या वर्ण नहीं है" । "वंशकृत अशुद्धता व कोढ आदि बीमारियां परम्परा तक चलती है यह नियम नहीं है। . .. "सब ही अघातिये कर्म गुण श्रेणि के आरोहण में बेजान समझे जाते हैं । गोत्रकर्म का परिवर्तन तो एक साधारण सी बात है । अघातिया कर्म जीव के दर्शन ज्ञान सम्यक्त्व आदि गुण तो क्या अनुजीव गुण स्पर्षरसगंधवर्णादि का जो ज्ञान है उसका भी घात नहीं करसकता और नीच कुल में जन्म लेने पर भी कषाय योग के प्रभाव से व भाव शुद्धि से नीचसंस्कार फल को प्राप्त नहीं होते । क्योंकि कुल संस्कार से बने हुए गोत्र कर्मों का पाक जीवन में होने से जीव के संयम रूप परिणाम हो जाने पर प्राचरण में स्वभावतः परिवर्तन हो जाता है। यही जीव विपाकी गोत्रकर्म की प्रकृति का प्रकरणांतर गत यथार्थ अर्थ है"। "नांच गोत्र की कर्म प्रकृति...... नीत्र गोत्र रूप हो जाता है " गा० ४१०, ४२२। __"यह तीनों संक्रमणं अपनी २ बंधव्युच्छित्तिसे प्रारंम्भ होकर क्रमशः श्रप्रमत्त (७) से लगाकर उपशांत कषाय (११) पर्यन्त पूर्ण हो जाते है"
जैसे नीच गोत्र उच्च गोत्र हो सकता है उसी प्रकार उच्च गोत्र भी अपकर्षण करके नीच गोत्र हो जाता है और गोत्र कर्म का उद्वेलन होकर सर्व संक्रमण तक होता है। ___ बंध की अपेक्षा से भी गोत्र का परिवर्तन स्पष्ट है उपशम श्रेणी से उतरते समय सूक्षम संपराय गुणस्थान में १.अनुत्कृष्ट उच्च गोत्र का अनुभाग बंध होता है वह सादिबंध है, २सूक्षम संपराय से नाचे रहने वाले जीवों के वह अनादि बंध है, ३ अभव्य जीवों के ध्रुव बन्ध है, तथा ४--उपशम श्रेणी वाले
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