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के अनुत्कृष्ट बंध को छोड़कर जो उत्कृष्ट बंध होता है वह अभुव है। इस प्रकार अनुत्कृष्ट उच्च गोत्र के अनुभाग बंध में ४ भेद बतलाये ।
"उस जगह ( सम्यक्त्व वमन के बाद ) इस अजघन्य नीच गोत्र के अनुभाग बंध को सादिबंध कहना । फिर उसी मिथ्यादृष्टि जीव को उस श्रांत के समय में पहले जो बंध है वह अनादि | भव्य जीव की वह बंध ध्रुव है । और वहाँ अजघन्य को छोड़ जघन्य हुआ वहां वह अध्रुव 1
"गोत्र कर्म के परिवर्तन का वह कितना स्पष्ट वर्णन है"
( विश्वंभरदासजी गार्गीयका "गोत्र कर्म क्या है !" लेख, जैन मित्र ६० ३९, अंक ३९, ४०, 21)
A भोग भूमि और कर्म भूमि के जरिये गौत्र का उदयपरिवर्तन पाया जाता है ।
"इस यथार्थ घटना से ही सिद्ध है कि गोत्र का उदय, संतानों में बदल जाता है ।" ( पृ० २६० )
B "संतानक्रम से गोत्र का उदय बदल जाता है" (३३८) C "हमारी समझ में उनके ( अंतर द्वीपज मनुष्य के ) भोग भूमि के समान उच्च गोत्र का उदय होना चाहिये । ( पृ० ४३४)
( ब्र० शीतलप्रसादजी के लेख, जैन मित्र वर्ष ४० अंक १६, २१, २७ ) १७ A तीर्थंकर भगवान का श्रदारिक शरीर उसी ही भव में बदल कर परमोदारिक बन जाता है वैसे गोत्रकर्म का भी परिव र्तन समझना चाहिये ।
B आज कल के ८ करोड़ मुसलमान ये असल में उच्च गोत्र की संतान है, इनमें जो श्राचार से शुद्ध बनेगा वह उच्च गोत्री बनेगा | वगैरह !
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