________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
[ ८२] २-सर्वार्थसिद्धि राजवार्तिक व श्लोक वार्तिक में-"लोक पूजितेषु", "गर्हितेषु", लोक मान्य और लोक निंद्यरूप लौकिक व्यवहार को ही गोत्र माना है ।*
३-धवला टीका में गोत्र का साधु और असाधु आचार से सम्बन्ध जोड़ा है । यहां साध्वाचार शब्द से "प्रशस्त आचार" लेना है यहाँ "दीक्षा योग्य" शब्द कुछ विचित्र ही है क्योंकि दीक्षा का अभिप्राय मुनि दीक्षा का ही लिया जाय तो देव युगलिक और अभवि मनुष्य को उच्च गोत्री नहीं कहा जायगा, देव किसी की संतान नहीं है, युगलिकों को दीक्षा योग्य साधु अाचार वाले से सम्बन्ध और संतानत्व भी नहीं है अतः वे उच्चगोत्री नहीं रहेंगे । मगर दिगम्बर आचार्य उन्हें उच्च गोत्री ही मानते हैं । यदी श्रावक के व्रत भी दीक्षा में सामिल हैं तो पंचे. न्द्रिय तीर्यच भी उच्च गोत्री ठहरेंगे और उनकी उच्चता देवों से भी बढ़ जायगी।
इसके अलावा उस १२६ सूत्र की ही धवला टीका में "नापि पंच महाव्रत ग्रहण योग्यता उच्चैर्गोत्रेण क्रियते" तथा 'नाणुन. तिभ्यः समुत्यतौ तद् व्यापारः ॥” पाठ से भी उपरोक्त लिखित अभिप्राय की पुष्टी होती है।
४-इस प्रकार यह गोत्र व्यवस्था सर्वथा अस्पष्ट है इस अवस्था में यह मानना पड़ेगा कि सम्यक्त्व या मिथ्यात्व पाप या पुण्य और धर्म या अधर्म के ऊपर गोत्रकर्म का कुछ असर नहीं पड़ता है।
इस विवेचन का सारांश यह है कि-दिगम्बर विद्वान् गोत्र कर्म को श्राचार पर निर्भर मानते हैं उच्च, नचि प्राचारों के
गुणैगुण वद्भिर्वा भय॑न्ते ( सेव्यन्ते ) इति भायाः ॥
( सर्वार्थसिद्धि राजवार्तिक)
For Private And Personal Use Only