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गोत्र की व्यवस्था इस प्रकार है ।
१ -- संताण कमेणा गयजीवाऽऽयरणस्स गोदमिदि संगणा । उच्च नीचं चरणं, उच्चं नचिं हवे गोदं ॥ १३ ॥
( आ० नेमिचन्द्र कृत गोम्मट सार जीव कांड गा० १३ )
२-यस्योदयात् लोक पूजितेषु कुलेषु जन्म तदुच्चै गोत्रम् | यदुदयात् गर्हितेषु कुलेषु जन्म तनीचैर्गोत्रम् ॥
( आ० पूज्यपाद कृत सर्वार्थ सिद्धि अ० ८ सूत्र १२ टीका )
३- दीक्षायोग्य साध्वाचाराणां साध्वाचारेर कृत सम्बन्धाना मार्य प्रत्ययाभिधान व्यवहार निबन्धनानां पुरुषाणां संतानः उच्चै गोत्रम् ॥ तद्विपरीतं नीचे गोत्रम्
( आ. भूतबलि कृत घट खंडागत ४ वेदनाखंड ५ वा पर्याड अधिकार का सूत्र १२९ की आ० वीरसेन कृत धवला टीका )
४-नीच गोत्र का उदय पांचवे गुण स्थानक तक है देसे तदीय कसाया, तिरिया उज्जोय गीच तिरियगंदी हे आहार दुगं, थित तियं उदय वोच्छिणा ॥ २६७ ॥ देसे तदीय कलाया, नीचे एमेव मनुस सामराणे पजते वि य इत्थीवेदा पज्जत परिहीणा ॥ ३००॥
( गोम्मट सार - कश्मकांड )
इन पाठों से शूद्रों का मोक्ष ही नहीं वरन् शूद्रों की दीक्षा का भी निषेध है ।
जैन --
[--यह दिगम्बरसम्मत गोत्रव्यवस्था स्पष्ट नहीं है
देखिये
१- गोम्मटसार में उच्चं चरणं उच्चं गोदं हवे, नीचं चरणं नीचं गोदं हवे । उच्च श्राचरण से उच्च गोत्र व नीच आचरण से नीच गोत्र माना
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