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[ ८३ ] परिवर्तन के साथ उच्च नीच गोत्र के उदय का भी परिवर्तन मानते है जाति और कुल को कल्पना रूप मानते हैं और उच्च श्राचार वाले शब्द को जिन दीक्षा की प्राप्ति भी मानते हैं फिर मोक्ष का निषेध कैसे माना जाय ? जहां सम्यक चारित्र है जिन दीक्षा है वहां मोक्ष है ही।
दिगम्बर-गोत्र का परिवर्तन और जाति आदि कल्पना के लिये दिगम्बर प्रमाण बनाइये ।।
जैन-दिगम्बर विद्वान् गोत्रकर्म की प्रकृति में आपसी परिवर्तन और जाति कुल को असद् रूप मानते हैं
उनके पाठ निम्न प्रकार है। रणवि देहो बंदिज्जड, णवि कुलो ण वि य जाइ मंजुत्ता को वंदिम गुण हीणो, गहु समणो णेव सावोहोई ।। २७।
शरीर, कुल जाति श्रमण लिंग या श्रावक वेष बन्दनीय नहीं हैं, गुग्ग बन्दनीय है।
( आ. कुन्द कुन्द कृत दर्शन प्राभूति ) उत्तम धम्मेण जुत्तो, होदि तिरक्खोवि उत्तमो देवो । चंडालो वि सुरीन्दो, उत्तमधम्मण संभवदि । चंडाल और तीर्यच धर्म के जरिये उत्तम माने जाते हैं ।
(स्वामीकार्तिकेया नुप्रेक्षा गा० ४३० ) पूर्वविभ्रम संस्कारात्, भ्रान्तिं भूयोपि गच्छति ॥ विभाव की विचारणा करने वाला जीव ज्ञानी होने पर भी मैं ब्राह्मण हूँ वह शुद्र है ऐग्ने भ्रम में पुराने विभ्रम संस्कार से पुनः फस जाता है ॥ ४५ ॥
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