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[ ८५ ] नीच के देह में कोई निशान नहीं होता है हीन प्राचार वाला ही नाच है।
चातुर्वण्यं यथा यच्च, चाण्डालादि विशेषणम् । सर्व माचार भेदेन, प्रसिध्धं भुवने गतं ॥ चारो वर्ण श्राचार भेद के कारण बने हैं।
(आ० रविषेण कृत पन चरित्र) नब्रह्मजाति स्त्विह काचिदस्ति । न क्षत्रियो नापि चवैश्य शूद्रे ॥
(वरांग चरित्र २५-११) पहिले नीन बारे में भोग भूमि के मनुष्य थे जो उच्च गोत्री के बाद में कर्म भूमि में उन्हीं की ही सन्तान उच्च नीच एवं दो गोत्र घाली बन गई है छठे बारे में सब नीच गोत्री हो जावेंगे । तत्पश्चात् उन्हीं की संतान फिर दोनों गोत्र वाली बन जायगी और भोग भूमि का प्रारम्भ होते ही सब उच्च गोत्री बन जायेंगे। सारांश संतान परम्परा में उच्च नीच गोत्र का परिवर्तन होता रहता है।
(गोम्मट सार, कर्म कांड, गा० २८५ वगैरह ) नेवाकु कुला द्युत्पत्तौ ( उच्चैोत्रस्य ) व्यापारः । काल्पनिकानां तेषां परमार्थ तोऽसत्वात् ।। इश्वाकु कुल वगैरह काल्पनिक हैं परमार्थ से असत् हैं । (षट खंडागम खं० ४ अधि० ५ सू० १२९ की आ० वीरसेन कृत धवला टीका)
मनुष्य जातिरेकैव जातिनामो दयोद्भवा।। वृत्तिभेदा हि, तद्भेदाचातुर्विध्य मिहाश्नुते ॥ ४५ ॥ जाति नाम कर्म के उदय से मनुष्य की एक ही जाति है और ब्राह्मण वगैरह जातियां तो पेशा के अनुसार बनी हुई हैं।
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