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(समय प्राभृत गा० ४४४ तात्पर्य वृत्ति पृ० २०६ ) माने-भरत चक्रवर्ति गहस्थी था, मगर पौन घंटे में व्रत परिरणाम को पाकर केवल ज्ञानी होकर मोक्ष में गया। यह बात तीसर युग की है अल्प काल होने के कारण जनता उसके व्रत परिणाम को नहीं जानती है।
जैन- यह समाधान वास्तविक समाधान नहीं है, क्योंकि उन्होंने विषय कषाय निवृति रूप परिणाम धारण किया, निश्चय व्रत स्वीकारा, कंवल ज्ञान गाया, और मोक्ष पाया ये चारों बात भरत चक्रवर्ति के भावलिंग-भावचारित्र की सूचक है, इनसे द्रव्य चारित्र की समस्या आप ही आप हल हो जाती है । जनता ने तो जैसा था वैसा ही माना । फिर भी ग्रन्थकार को क्या खटकती है, कि लोंगो पर अक्षता का आरोप करते है ? । ___ यह तीसरे युग का प्रसंग है। बाद में चौथे युग में २३ तीर्थकर होगये, संख्यातीत केवली होगये, मगर किसी ने भी इस आपकी मानी हुई गलती को साफ नहीं किया, यह भी अजीब मान्यता है । जैन जनता तीसरे आरे (युग ) से आज तक जिस बात को ठीक मानती है वही बात सच्ची हो सकती है कि सिर्फ द्रव्यसंग्रह
आदि के वृत्तिकार कहते हैं वही बात सच्ची हो सकती है, इसका निर्णय पुराण प्रिय या इतिहासविद करले । ___ जनता तीसरे युग से आज तक भरत चक्री को "गृहस्थलींग सिद्ध" मानती है, ऐसा ग्रन्थकर्ता का विश्वास है और मोक्ष प्राप्ति में द्रव्यलिंग नहीं किन्तु भावलिंग यानी व्रतपरिणाम की प्रधा नता है यह ग्रन्थकार को अभीष्ट है।
जव तो गृहस्थ भी इस भावलींग यानी भावचारित्र के जरिये केवलनानी और सिद्ध हो सके, यह तो स्वयं ही सिद है।
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