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प्रा० कुन्द कुन्द स्वामी तो हिंसा, परिग्रह आदि वस्तुओं के मुकाबले में साफ साफ अध्यवसाय की ही प्रधानता बताते हैं। जैसा कि
अज्झसिंदण बंधा, सत्ते मारेहि मा व मारेहि। एसा बंधसमासो, जीवाणं णिच्छय णयस्स || २८० ॥ एव मलिये अदत्ते, अचम्भचेरे परिग्गहे चेव । कीरहि अज्झवसाणं, जं तेण दु वज्जद पावं ॥ २८ ॥ वत्थु पडुन जं पुण, अज्झवसाणं तु होदि जीवाणं । णहि वत्थुदो दु बंधो, अज्झवसाणेण बंधो त्ति ॥ २८३ ।। एदाणि णस्थि जोस, अज्झवसाणाणि एगमादीणि । ते असुहेण सुहेण य, कम्मेण मुणी ण लिप्पंति ॥ २६३ ॥ बुद्धि क्वसाओ वि य, अज्झवसाणं मदीय विरणाणं । इक्कटमेव सव्वं, चित्तो भावो य परिणामो ॥ २६५ ॥ एवं ववहारणयो, पडिसिद्धो जाण णिच्छय णयेण। णिच्छय णय सल्लीणा, मुणिणो पावंति णिव्वाणं ॥ २६६ ॥
प्रा• कुंद कुंदजी समयसार गा० ४४३ में पाखंडलींग और गृहीलींग वगैरह में ममता रखने की मना करते ही हैं, साथ साथ सब लींगों को छोड कर सीर्फ ज्ञान दर्शन व चारित्र को ही मोक्ष हेतु मानते हैं । ओर २ दिगम्बर प्राचार्य भी मोक्ष प्राप्ति के लीये नग्नता पीछी श्रादि बाह्य भेष को नहीं, किन्तु आत्मा के गुणों को ही प्रधान मानते हैं । दखियेलिंग मुइत्तु दंसण-णाण चरित्ताणि सेवति ॥ ४३६ ॥ दसण णाण चरित्त, अप्पाणं झुंज मोक्खपहे ॥ ४४ ॥ णिच्छदि मोक्खपहे सव्व लिंगाणि ॥ ४४४॥
(समयसार प्राभृत)
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