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[ ५३ ]
मूच्छी रहित-भाव साधु सुखी होता है और नंगा - द्रव्य
साधु दुखी होता है | अतः भाव साधु ही बनना चाहिये ।
( आ० कुन्द कुन्द कृत भाव प्राभृत )
धम्मे हो लिंगं, ण लिंगमित्रेण धम्मसंपत्ती । जाहिं भाव धम्मं, किं ते लिंगेण कायव्वो ॥ २ ॥
नंगा हो जाने से साधुता नहीं आती है। अतः द्रव्यलिंग किसी काम का नहीं है । कार्य साधना में भाव साधुता माने निर्ममत्वा दि भाव लिंग की ही प्रधानता है ।
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( आ० कुन्द कुन्द कृत लिंग प्राभृत ) निश्चयनय मोक्ष मार्ग में द्रव्यलिंग को निठल्ला मानता है.
( समय प्राभृत ४४४ )
त्यक्तैव बहिरात्मानं || २७ ॥
मोक्ष मार्ग में बहिरात्मा की चर्चा ही त्याज्य है ।
परत्राहं मतिः स्त्रस्मात् च्युतो बघ्नात्यसंशयम् ॥ ४३ ॥
मेरा शरीर, मेरा वस्त्र यह विचारना ही आत्मा को बन्धन कारक है, उनके होने पर भी उन्हें अपना नहीं मानना चाहिये ।
शरीरे वाचि चात्मानं ॥ ५४ ॥
शरीर को आत्मा मानना, यह अज्ञानता है शरीर जीव से भिन्न ही है, अतः शरीर सवस्त्र हो या अवस्त्र हो, मगर वह आत्मा की मोक्ष को नहीं रोक सकता है ।
जीर्णे स्वदेहे मात्मानं, न जीर्णं मन्यते बुधः ॥ ६४ ॥
इस श्लोक के श्राशय को लेकर ऐसा श्लोक भी बन सकता
कि
सबने देहे प्यात्मानं न स वस्त्रं वदेत् बुधः ॥
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