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[ ६९ न्ति । केचित् शरीरे उत्पन्न दोषाः लजितत्वात् तथा कुर्वन्ति इति व्याख्यानं "आराधना भगवती" प्रोक्का ऽभिप्रायेणा ऽपवादरूपं ज्ञातव्यं । उत्सर्गापवादयो रपवादो विधि बलवान् इति ।
( तत्वार्थसूत्र सर्वार्थसिद्धि की श्रुतसागरी टीका) (३) श्री पं० जिनदास शास्त्री सोलापुरवाले ने दिगम्बर मुनियों में दो भेद माने हैं । एक उत्सर्ग लिंग धारी और दूसरा अपवाद लिंग धारी । उत्सर्ग लिंग धारी दिगम्बर रहता है। और अपवाद लिंग धारी दिगम्बर दीक्षा लेकर भी कपडा ले सकता है। ( जनसमुदाय में सवस्त्र रहना और एकान्त स्थान में दिगम्बर रहना ) और दिगम्बर मुनि भी कारण की अपेक्षा से अर्थात् जिन के त्रिस्थान दोष है जो लज्जावान है, थंडी परिषह सहन करने में असमर्थ है, एसे दिगम्बर मुनि को जन समुदाय में सवस्त्र रहना चाहिये । और उस वस्त्र लेने से उनको दोष भी नहीं आता है। प्रायश्चित भी नहीं लेना पड़ता । और उसे अपवाद लिंग कहना चाहिये, एसा उनका मत है।
(वीरसं० २४६६ का० शु० ५ का जैनमित्र व० ४. अं०१) वास्तव में उत्सर्ग का प्रतिपक्षी अपवाद ही है, इसलिये उत्सर्ग में ब्रत का जो स्वरूप है वह अपवाद में कैसे रह सकता है ! जहाँ उत्सर्ग व्यवस्था नहीं कर पाता है, वहाँ अपवाद व्यवस्था करता है, और उत्सर्ग द्वारा जो ध्येय है उसी ही ध्येय को प्राप्त कराता है।
दिगम्बर आचार्य भी एकान्त उत्सर्ग यानी मरने की गतों को महान् लेप में सामिल करके अपवाद की वास्तविकता को अपनाते हैं।
(प्रवचन सार गाय ३० ट्रीका)
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