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[ ६५ ] (दि० प्रा० सोमसेन कृत त्रिवर्णाचार ०.) ५-जैन राजा सुमित्र ने स्वयं अपनी रानी को कहा कि वह जाकर, उसके एक मित्र की काम वासना की तृप्ति करे, साथ ही न जाने पर उसे दंड देने की धमकी भी दी गई।
(पन्न पुराण स० १२ प्रत्युत्तर पृ० १८, १०३) । ६-वारिषेण ने अपनी पहिले वाली बत्तीस ३२ पनियों को बुलाया और अपने सामने खड़े हुए एक शिष्यको उन्हें अपने घर हाल लेने के लिये कहा।
___(दि० आराधना कथा कोष, प्रत्यु० पृ० १८) श्राप वास्तव में देख चुके हैं कि ये सब नीच्छनीय विधान श्वेताम्बर शास्त्रो के नहीं किन्तु दिगम्बर शास्त्रों के हैं। - इसके अतिरिक्त प्रायश्चित के जरिये शोचा जाय तो प्रायः श्चित्त विधान दोनों शास्त्रो में एकसा ही उपदिष्ट है ।
शास्त्रकारों ने परिस्थिति की विषमता और दोषों की तरत. मता को भिन्न २ रूपस बता कर प्रायश्चित दान को एक दम विशद कर दिया है, इस हालत में श्वेताम्बर या दिगम्बर किसी भी जैन मुनि को मांसभोजी या काम भोगी बताना । यह सिर्फ निन्दा रूप ही है।
दिगम्बर--उत्सर्ग और अपवाद दोनों सापेक्ष मार्ग है उन को मद्देनजर रखकर प्रवृति करना चाहिये मगर व्रत भंग नहीं करना चाहिये।
जैन-मुनिको मन, वचन और काया से करना, कराना और अनुमोदन देना इनके त्याग रूप प्रतिक्षा है, प्राणांत कष्ट में भी उनका पालन करना चाहिये यह उत्सर्ग मार्ग है, और उसमें
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