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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६५ ] (दि० प्रा० सोमसेन कृत त्रिवर्णाचार ०.) ५-जैन राजा सुमित्र ने स्वयं अपनी रानी को कहा कि वह जाकर, उसके एक मित्र की काम वासना की तृप्ति करे, साथ ही न जाने पर उसे दंड देने की धमकी भी दी गई। (पन्न पुराण स० १२ प्रत्युत्तर पृ० १८, १०३) । ६-वारिषेण ने अपनी पहिले वाली बत्तीस ३२ पनियों को बुलाया और अपने सामने खड़े हुए एक शिष्यको उन्हें अपने घर हाल लेने के लिये कहा। ___(दि० आराधना कथा कोष, प्रत्यु० पृ० १८) श्राप वास्तव में देख चुके हैं कि ये सब नीच्छनीय विधान श्वेताम्बर शास्त्रो के नहीं किन्तु दिगम्बर शास्त्रों के हैं। - इसके अतिरिक्त प्रायश्चित के जरिये शोचा जाय तो प्रायः श्चित्त विधान दोनों शास्त्रो में एकसा ही उपदिष्ट है । शास्त्रकारों ने परिस्थिति की विषमता और दोषों की तरत. मता को भिन्न २ रूपस बता कर प्रायश्चित दान को एक दम विशद कर दिया है, इस हालत में श्वेताम्बर या दिगम्बर किसी भी जैन मुनि को मांसभोजी या काम भोगी बताना । यह सिर्फ निन्दा रूप ही है। दिगम्बर--उत्सर्ग और अपवाद दोनों सापेक्ष मार्ग है उन को मद्देनजर रखकर प्रवृति करना चाहिये मगर व्रत भंग नहीं करना चाहिये। जैन-मुनिको मन, वचन और काया से करना, कराना और अनुमोदन देना इनके त्याग रूप प्रतिक्षा है, प्राणांत कष्ट में भी उनका पालन करना चाहिये यह उत्सर्ग मार्ग है, और उसमें For Private And Personal Use Only
SR No.020729
Book TitleShvetambar Digamber Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand Shah
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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