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तथा स्थिर कराने का हेतु रूप भी मानते हैं जैसे
1- श्रावक साधार्मिक गृहस्थ आचार्य या मध्यम पात्र को कन्यादान करे । कन्या की स्वीकृति तीनों वर्ग की साधना के हेतु रूप है । इस दान का फल दर्शन की स्थिरता है । और चारित्र मोहनीय का उपशम है । पिता साधर्मिक बन्धु को कन्या देता है और दामाद को परिपक्व विषय फल भोग को प्राप्त कराकर उसके द्वारा चारित्र मोहोदय को शान्तकराकर विषय त्याग के योग्य बनाता है माने कन्यादान धर्म का अंग है ।
( पं० श्रशाधर कृत श्रावका चार )
२ - A कन्यादानं न देयं
B वारिषेण ने अपनी स्त्री का दान करके साधर्मिक को स्थिर किया । ( सकलकीर्ति कृत श्रावकाचार )
३- - ऋतुवंती पत्नी को चौथी रातको अवश्य ही भोगना चाहिये ॥ २७१ ॥
( पं० मेधाविकृत धर्म संग्रह श्रावका चार श्लो० २७१ )
४ - शुद्ध श्राचक पुत्राय, धर्मिष्ठाय दारीद्रणे ।
कन्यादानं प्रदातव्यं, धर्म संस्थिति हेतवे ॥ १२७ ॥ बिना भार्यौ तदाचारो न भवेद् गृहमेधिनां । दान पूजादिकं कार्यमग्रे संतति संभवः ॥ १२८ ॥ श्रावका चार निष्ठापि, दरिद्री कर्म योगतः । सुवर्णदान माख्यातं, तस्मै श्राचार हेतवे ॥ १२९ ॥ गृहदानं ॥ १३० ॥ रथादि दानं ॥ १३१ से १३६ ॥ (दि० भट्टा० सोमसेनकृत, त्रिवर्णाचार श्र० ६ सं० १६६५) रतिकाल योनिपूजादि ॥ ३८ से ४५ ॥
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