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[ ५५ ] देह एव भवो जन्तोर्यल्लिगं च तदाश्रितम् जातिवत्तद् गृहं तत्र, त्यत्वा स्वात्म ग्रहं वशेत् ॥ ३९ ॥ शरीर ही संसार है, लिंग उसके अधीन है, जाति के समान पराश्रित है, अतः नग्नतादि लिंग का श्राग्रह नहीं रखना चाहिये।
(पं० आशाधर कृत सागार धर्मामृत ) जो घर त्यागी कहावे जोगी, घरवासी कहँ कहैं नूँ भोगी अंतर भाव न परखे जोई, गोरख बोले मूरख सोई
(बनारसी विलास पृ० २९९)
सारांश-ऊपर के सब प्रमाणों से निश्चित ही है कि अनेकान्त जैन दर्शन को नग्नता या वस्त्र से कोई वास्ता नहीं है । जैन मुनि नंगा हो या वस्त्र धारक हो, किन्तु वह भाव साधु माने मूर्छा रहित अवश्य होना चाहिये, वही मोक्ष का अधिकारी है।
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