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दिगम्बर के - विद्वज्जन बोधक पृष्ठ १७८ में भी लिखा है- कि इव्यलिंग ने प्रतीतिकरि तिसे विचारिये तो पांचों ही भेद भाज्य है भेद करने योग्य हैं।
इस पाठ से स्पष्ट है कि पाँचों निर्गन्थ के भिन्न २ साधु वेश होने के कारण अनेक भेद होते हैं। यदि निर्गन्थ का द्रव्यलिंग सिर्फ नग्नता ही होती तो भावलिंग के समान द्रव्यलिंग का भी एक ही भेद होता, किंतु यहाँ अनेक भेद माने हैं, अतः स्पष्ट है कि -निर्गन्थों का द्रव्यलिंग नग्नता नहीं किन्तु साधुवेश यानी साधु के उपकरण ही है, और वे उपकरण अनेक प्रकार के हैं ।
( तस्वार्थ सूत्र अ० १ सू० ४६, ४७ की सर्वार्थ सिद्धि और राजवार्तिक टीका पृ० ३५८, ३५६ )
संनिरस्त कमाणात मुहूर्त केवल ज्ञान दर्शन प्रापिणो निर्गन्धाः |
चौथा "निर्गन्ध" नामक निर्गन्ध वही है जो कि वाह्य और अभ्यंतर ग्रन्थी से रहित है, और जिसको अन्त मुहूर्त में केवल ज्ञान व केवल दर्शन होता है । इससे भी स्पष्ट है कि नंगे को निर्गन्थ मानना, सरासर भ्रम ही है ।
प्रकृष्टा प्रकष्ट मध्यमानां निर्गन्थाभावः । न वा...... संग्रह व्यवहारा पेक्षत्वात् ॥
तरतमता के होने पर भी पाँचों निर्गन्ध निर्गन्थ ही है । नयाँ की अपेक्षा से यह भेद मी उचित हैं ।
( तत्वार्थ सूत्र टीका )
तयो रुपकरणा सक्ति संभवात् आर्त ध्यानं कदाचित्कं संभवति, आर्तध्यानेन कृष्णलेश्यादि त्रयं भवति ।
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