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गृहस्थ ही करते हैं, फिर कैसे माना जाय कि सबस्न दशा में सा. मायिक नहीं है ।
यद्यपि दि० प्राचार्यों को सवस्त्र सामायिक श्रादि करने की बात खटकती है और उस सिलसिला में किसी २ ने तो इन श्रावक बतों को उड़ाने तक की कोशीश भी की है, किन्तु ये कामयाब न हुए । इस बात का निम्न लिखित मत भेदों से पत्ता पाया जाता है।
A६ दिग् ७ देशा ८ नर्थ दंड विरति ९ सामायिक १० पौषधो पवासो ११ पभोग परिमाणा । २ तिथिसंविभाग व्रत संपन्नश्च ।। २१ ॥ मारणान्ति की सल्लेखनां जोषिता च ।। २२ ।। *
- (दिगम्बगीय तरवार्थ सूत्र भ०७) B६ दिगपरिमाण, ७ भोगोपभोगप०८ अनर्थ दंड विरति ६ सामायिक १० देसावगासिक । पौषध १२ अतिथि संविभाग
(ख करंड श्रावका चार पं भाशाधर कृत सागारधर्मामृत) CE सामाइयं च पढमं, १० बिदियं च तहेव पोसहं भणियं ।। ॥ तस्यं अतिहि पुज्ज, १२ चउत्थं सलहेणा अंते ॥ २६ ॥
(आ० कुन्द कुन्द कृत चारित्र प्रामृत गा० २६) • * अतिथिसं विभाग की दिगम्बर विधि इस प्रकार है ।
व्रतम तिथि संविभागः, पात्र विशेषाय विधि विशेषेण । द्व्य विशेष विसरणं, दातृ विशेषस्य फल विशेषाय । ५। ।।। ज्ञानादिसिध्यर्थ-तनुस्यित्यर्था-नाय यः स्वयम् । यरनेनाऽतति गेहंवा, न तिथि यस्य सोऽतिथिः । ५ । १२ । यतिः स्या दुत्तमं पात्रं, मध्यमं श्रावकोऽधर्मम् । सुरष्टि स्तद्वि शिष्टत्वं, विशिष्ट गुण योगत: ।५।४।। कृत्वा माध्याम्हिकं मोक्तु-मुद्यक्तो ऽतिथये ददे । स्वार्थ कृतं भानमिति, ध्यायन्नतिथि मीक्षताम् । ५।५।।
(पं. आशाधर कृत सागार धर्मामृत अ० ५)
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