________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
[३०] हो सकती है। वस्त्रों की मर्यादा के लिये स्वतंत्र विधान अनिवार्य था, जो आचेलक्य से बताया गया है ।
संस्कृत वगैरह भाषाओं में सर्वथा निषेध या अल्प निषेध करना हो, तब समासमें अ और अन् शब्द का प्रयोग किया जाता है जैसे कि
अ-निषेध । अ+जीव-जीव से भिन्न, जीव रहित । अ+ वृष्टि बृष्टि का अभाव ।
अ=अल्पत्व । अनुदरी कन्या छोटे पेटवाली कन्या । अ+ज्ञ-अल्पज्ञ । अ+वृष्टि-अल्पवृष्टि। अ+ज्ञान-अल्प ज्ञान विपरीतज्ञान । अ+बला अल्पबला । इत्यादि
इस प्रकार यहाँ अचेल का अर्थ भी अचेल माने "अल्प वस्त्र होना" यही किया गया है।
इस कल्प से वस्त्रों का निषेध नहीं बल्कि मर्यादा हो जाती है। इस मर्यादा से भिन्न या अधिक वस्त्र रखने वाला निर्गन्ध मुनि वकुश है जो बात तत्वार्थ सूत्र के "विविध विचित्र परिः ग्रह युक्तः वहु विशेष युक्तो पकरणा कांक्षी" इत्यादि से स्पष्ट है। दिगम्बर आचार्य को भी श्राचेलक्य का यही अर्थ सम्मत है।
दिगम्बर-दिगम्बरों ने प्राचेलक्य कल्प का विधान ही नहीं किया है । फिर सम्मति कैसी ? जो अपरिग्रह से ही अचेलभाव का स्वीकार करते हैं। वे अचेलक कल्प का भिन्न विधान करक अपनी स्वीकृति को कमजोर क्यों बनावें ? . जैन-अपरिग्रहता में वस्त्र की व्यवस्था नहीं है अतः एव दिगम्बर ग्रन्थकार आचेलक्य रूप वस्त्र व्यवस्था का अलग विधान करते हैं । देखिये
For Private And Personal Use Only