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( दि० भ० शुभ बन्द्र कुल ज्ञानार्णव अ०८ श्लो० १२-१३ ) १६- कौपीनपि मूर्च्छत्वा नाही त्यार्यो महाव्रतम् || अपि भाक्त ममूर्च्छत्वात् साटकेऽप्यार्थिकार्हति ॥ ३६ ॥ मूर्छा होने के कारण लंगोटी वाला श्रावक भी उपचरित महाव्रत के योग्य नहीं है, मगर "मूच्छी नहीं होने के कारण " बस्त्र वाली श्रमणी भी उपचरित महाव्रत के योग्य है। मान वस्त्र वाले को महाव्रत है मूर्छा वाले को नहीं है ।
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यदत्सर्गिक मन्यद्वा, लिंगमुक्तं जिनैः स्त्रियाः पुंवत दिध्यते मृत्यु काले स्वल्प कृतोपधेः ॥ ३८ ॥ देह एव भवो जन्तो-ल्लिंगं च तदाश्रितम् ॥
जातिवत्तद् ग्रहं तत्र त्यक्त्वा स्वात्म ग्रहं वशेत् ॥ ३६ ॥
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शय्योपध्या - लोचना-न्न वैयावृत्येषु पंचधा ॥
शुद्धिः स्यात् दृष्टि-धी- वृत्त विनयावश्यकेषु वा ॥ ४२ ॥
स्वोपज्ञटीकांश - स्यादसौ शुद्धिः । कतिधा ? पंचधा । केषु ? शय्यादिषु विषयेषु । तत्र, शय्या वसति, संस्तरौ, उपधिः- संयम साधनम् |' वृत्त चारित्रे निरति चार प्रवृत्तिः ॥ ४२ ॥
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बाह्य ग्रन्थों गमक्षाणा - मान्तरो विषयषिता ।। निर्मोहस्तत्र निर्ग थः पान्थः शिवपुरे यतः ॥ ८६ ॥
मान शरीर इन्द्रिय वगैरह बाह्य ग्रन्थ है विषयेच्छा श्रांतर ग्रन्थ है, उनमें "ममता " न रक्खो । #
* निर्गन्धो को स्याज्य बाह्य ग्रन्थ और अभ्यंतर ग्रन्थ का स्वरूप इस प्रकार है
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सोविय गंथो दुविहो, बज्झो अभिंतशे भ बोधव्वो । अंतो अ वोइस विहो, दसहा पुण बाहिरो गंथो ॥ ८२३ ॥
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