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इस प्रकार दिगम्बर शास्त्रों में भी दो कल्प बताये हैं, और जिन कल्प यह किसी शानी की खास विशिष्ट यथेच्छ प्रवृति है ऐसा स्पष्ट कर दिया है।
ये प्रमाण भी बताता है कि-स्थविर कल्प ही प्रधान श्रमणमार्ग है जब जिन कल्प सिर्फ व्यक्तिगत विशिष्ट प्रवृति है । इस हालत में जिन कल्प असली यानी प्रधान मुनि लिंग नहीं हो सकता है।
दिगम्बर-पा० कुन्द कुन्द तो सब द्रव्य के त्याग से ही अपरिग्रहता मानते हैं । वे लिखते हैं कि
वालग्ग कोडिमित्तं, परिग्गह ग्गहणं ण होई साहणं । मूंजेइ पाणि पत्ते, दिगणंगणं इक्क ठाणम्मि ॥ १७ ॥
(आ० कुन्द कुन्द कृत-सूत्र प्राभूत) विध तम्हि नात्थ मूच्छा ! आरम्भो वा असंजमो तस्स । तध परदव्वम्मि रदो, कथ मप्पाणं पसाधयदि ॥ २० ॥
टीका---उपधि सद्भावे हि ममत्व परिणाम लक्षणायाः मायाः, तद्विषय कर्म प्रक्रम परिणाम लक्षणस्यारंभस्य, शुद्धात्म रूप रूप हिंसन परिणाम लक्षणस्याऽसंयमस्य चावश्य भावित्वात् ।
याने-उपधि में मूर्छ, प्रारम्भ और असंयम होता है, पर द्रव्य में रत मनुष्य प्रात्मा को साध सकता नहीं है।
(1 कुन्द कुन्द कृत प्रवचन सार धरणानुयोग चूलिका ) जैन--महानुभाव ! यह कथन सिर्फ ममता रूप परिग्रह यानी मूर्छ के खिलाफ है वास्तव में बालाग्र ही नहीं किन्तु बालों का संमूह-पछिी, उपधि, शरीर वाणी और मन वगैरह पर द्रव्य है। जो धर्म साधन के हेतु होने के कारण उपकरण ही है किंतु मूळ होने
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