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[२०] पर वे सब अधिकरण बन जाते हैं, इस आशय को स्पष्ट करने के लिये ऊपर की गाथाएं पर्याप्त हैं ।
यदि ऐसा न होता तो वे आचार्य उपधि की आशा कतई नहीं देते। किन्तु प्रत्यक्ष है कि वे ही बाद की गाथाओं में उपधि स्वी. कार की आशा देते है । देखिये
छेदो जेण न विज्जदि, गहणविसग्गेसु सेवमाणस्स समणो तणिह वट्टदु, कालं खेत्तं वियाणित्ता ॥२१॥
टीका-यः किल अशुद्धोपयोगाऽविनाभावी स छेदः। अयं उपधिस्तु श्रावण्यपर्याय सहकारकारि कारण शरीर धृति हेतुभूताऽऽहार निहारादि ग्रहण विसर्जन विषय छेद प्रति षेधार्थमुपादीयमानः सर्वथा शुद्धोपयोगाऽविना भूतत्वात् प्रतिषेध एव स्यात् ।। २६॥
अथाऽप्रतिषेधोपधिस्वरूप मुपदिशति । अप्पडिकुटुं उपधि अपत्थणिजं असंजद जणेहिं । मूच्छादिजणण रहिदं, गेगदु समणो यदि वि अप्पं|॥२२॥
टीका-यः किलोपधिः बंधाऽसाधकत्वाद प्रति कुष्ठः संय. मादन्यत्रानुचितत्वाद संयतजनाऽप्रार्थनीयो, रागादि परिणाम मंतरेण धार्य माणत्वा "न्मूर्छादिजनन रहित श्च"भवति स खलु "अप्रतिषिध्धः" । अतो यथोदितस्वरूप एवोपधिरुपादेयो, न पुनरल्पोपि यथोदित विपर्पस्त स्वरूपः ॥ २२ ॥
बालो वा बुड्डो वा, सममिहतो वा पुणो गिलाणो वा । चरिय चरउ सजोग्गां, मूलच्छेदं जधाण हवदि ॥ २६ ॥ आहारे व विहारे, देशं कालं समं खमां उवधि ।। जाणित्ता ते समणो, वदि जदि अप्प लेवी सो ॥ ३० ॥ दीकांश-१ अल्प लेपो भवत्येव तद्वर मुत्सर्गः ॥
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