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[ १४ ] संयमश्रुतप्रतिसेवनातीर्थ लिंग लेश्यापपातस्थान विकल्पतः साध्याः।
(वा० उमास्वति कृत तस्वा० भ० । सू ४६ ४७ ) - अविविक्त परिग्रहाः परिपूर्णोर्भयाः कथंचिदुत्तर गुण विराधिनः प्रति सेवना कुशीलाः ।
निर्गन्ध वस्त्र पात्र और उपकरण वाले तो होते ही है परन्तु उसमें ममता नहीं रखते हैं यदि उनमें "प्रत्यक्त परिग्रह "यानी मूर्छा करते हैं । तो भी वे तीसरी कोटि के निर्गन्थ ही हैं।
प्रति सेवना कुशीला द्वयोः संयमयोः दश पूर्व धराः। वे निर्गन्थ दो चारित्र वाले और दश पूर्व के ज्ञान वाले भी होते हैं।
तत्र उपकरणाभिष्वक्त चित्तो, विविधविचित्र परिग्रह युक्तः, बहु विशेषयुक्तोपकरणकांक्षी, तत्संस्कार प्रतिकार सेवी, भिक्षुः ॥ __निर्गन्थ के पास वस्त्र पात्रादि उपकरण होते ही हैं । परन्तु वह उनमें आसक्त चित्त रहे, विविध और विचित्र वस्त्रादि को धारण करें या तीर्थकर की आज्ञा से अतिरिक्त विशेष उपकरणों की चाहना करे तो वह पाँच में से दूसरी कक्षा का निर्गन्थ है।
लिंग द्विविघं, द्रव्यलिंगं भावलिंगच । भावलिंगं प्रतीत्य सर्वेपि निर्गन्थाः लिंगिनो भवन्ति । द्रव्यलिगं प्रतीत्य भाज्याः ।
श्रमण लिंग दो प्रकार के हैं । 1-द्रव्यलिंग-साधु वेष और २-भावलिंग--चारित्र । चारित्र के जरिये पाँचो निर्गन्ध "लिंगी" हैं। द्रव्यजिंग के जरिये उनके अनेक भेद होते हैं।
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