Book Title: Shripalmaynamrut Kavyam
Author(s): Naychandrasagar
Publisher: Agamoddharak Pratishthan

View full book text
Previous | Next

Page 18
________________ काव्यम् श्रीपालमयणामृत 靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈認 अपाठयत् सुबुद्धिस्तु मदनां जिनवाङ्मयम् । जाता धीरा विनीता च लज्जादि सुगुणान्विता ॥५६॥ यथा गुरुस्तथा शिष्यः निर्दिष्टं तु सुभाषिते । सुरा जाता कुदृष्टिस्तु मदना सौम्यदर्शना ॥५७॥ आनायिते निजपार्श्वे बाले ते सुपरीक्षितुम् । पित्राऽन्यदा सभायां वै ते कलाचार्य-संयुते ॥५८॥ तयोर्मति-परीक्षायै समस्यापदमर्पितम् । नृपेणानंदयुक्तेन 'पुण्यात्किं किं सुलभ्यते' ॥५९॥ | अतिचञ्चल-चित्तत्वात् विदग्धत्वाच्च संमदात् । क्षणेन पूरयामीति वदति सुरसुन्दरी ॥६०॥ • यौवनं च सुरूपञ्च विदग्धत्वं वरं धनं । स्वचेतःप्रियकृत् भर्ता पुण्यादेतानि लभ्यते ॥६१॥ ॐ श्रुत्वैतद् भूपतिर्दृष्टः पाठकेनापि शंसिता । सत्यं सत्यं मृषा नास्ति वदन्ति च सभासदः ॥६२॥ • पूरयति नृपादिष्टा मदनाऽपि ततोऽपरा । समस्यां धीर-गंभीरा शान्ता दान्ता स्वभावतः ॥६३॥ * विनयश्च विवेकश्च प्रसत्तिश्च' सुशीलता । हेतुश्च मोक्ष-मार्गस्य पुण्यादेतानि लभ्यते ॥६४॥ 取靈靈靈靈靈靈驗靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈體 १. प्रसत्ति:-प्रसन्नता । in Education Inte 4201005 For Private & Personal Use Only ama.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146