Book Title: Shripalmaynamrut Kavyam
Author(s): Naychandrasagar
Publisher: Agamoddharak Pratishthan

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Page 65
________________ श्रीपालेण जिनमंदिरद्वारोद्घाटनं काव्यम् श्रीपालमयणामृत 网靈器靈靈靈靈盟認盟盟望張靈靈靈靈靈靈靈靈靈盟 प्रोदितवान्कुमारोऽथ विस्मितो धवलं प्रति । रे रे श्रेष्ठिन् समायाव नगर्यां तं जिनालयम् ॥४८०॥ दर्शनं-देव-देवस्य दर्शनं पाप-नाशनम् । दर्शनं श्रेयस्सोपानं दर्शनं चार्थसाधनम् ॥४८१॥ | कुमारप्रेरितः श्रेष्ठी ममेहा नेति वक्ति सः । देवस्य दर्शनं पुण्य-हीनेभ्यो न हि रोचते ॥४८२॥ | किं त्वं जानासि भो वत्स ! व्यापार विषयेऽधुना । बालोऽसि त्वञ्च मुग्धोऽसि ज्ञातं त्वया न भावि किम् ॥४८३॥ | वसूनि खलु सिद्ध्यन्ति व्यापारेणोद्यमेन हि । नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ॥४८४॥ | भोक्तुमपि न कालोऽस्ति व्यापारेऽस्मिन्दिन-त्रयात् । त्वमेव गच्छ चेच्छा चेद् मुधाऽलं वार्तयाऽनया ॥४८५॥ | जिनमन्दिरमागत्य श्रीपालः बहुभिर्युतः । प्रेरयति जनान्सर्वान् द्वारोद्घाटन-कारणं ॥४८६॥ 蒙蒙蒙蒙蒙蒙蒙蒙蒙眾盟盟盟盟蒙蒙眾跟蹤激發靈靈靈靈 Jain Education Intel 2010_05 For Private & Personal use only Pow.jainelibrary.org

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