Book Title: Shripalmaynamrut Kavyam
Author(s): Naychandrasagar
Publisher: Agamoddharak Pratishthan

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Page 99
________________ मयणामृत श्रीपाल - पठति निपुणा पश्चात् " जितउं लिहउ निलाडि" । सा समस्यापि साश्चर्यं पुत्रिकास्येन पूरिता ॥ ७७५॥ 'अरिमन् अप्पर खंचि धरिचिंता जालि म पाडि । फलु त्तित्तउं परिपामीयइ जितउं लिहउ निलाडि ॥७७६ ॥ पञ्चमी प्राह दक्षाथ स्वोत्तरश्रवणोत्सुका । प्रहेलिकां यथाशीघ्रं "तसुतिहुयण - जण दासु" ॥७७७৷৷ कुमारः करमाधाय पुत्रिकाशीर्षके स तु । पूरितवान् समस्यां स शीघ्रमेव प्रमोदतः ॥७७८ ॥ अन्न भवन्तर संचिरं पुण्ण सुनिम्मल जासु । तसुबल तसुसिरि तसु जस तसु तिहुयण जण दासु ॥७७९ ॥ Jain Education Inter पञ्चभिः सखिभिः सार्धं समस्यां पृच्छ्यतेऽथ सः । कस्याभावेन संप्रोक्ता सिद्धानामक्षयास्थितिः ॥७८०॥ १. अरे ! मन आत्मानमाकृष्य धारय चिन्ताजाले मा पातय ! । फलं तावदेव परिप्राप्यते यावद् लिखितं ललाटे ॥७७६॥ २. अन्य भवान्तर - सञ्चितं पुण्यं सुनिर्मलं यस्य । तस्य बलं तस्य श्रीस्तस्य त्रिभुवनजनः दासः ॥ ७७९ ॥ 2010 05 For Private & Personal Use Only 8888888888 काव्यम् ८८ w.jainelibrary.org

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