Book Title: Shripalmaynamrut Kavyam
Author(s): Naychandrasagar
Publisher: Agamoddharak Pratishthan
View full book text
________________
श्रीपाल-
मयणामृत
望靈靈靈靈强强强强强鬣鬣獵獵獵靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈盟
द्वारोद्घाटनतो देवो दर्शितो भाग्यवत्त्वया । मुखोद्घाटनतो देव ! दर्शय कुलादिकं तथा ॥४९६॥ स्वमुखेनोत्तमो लोके वंशादीन् न प्रकाशते । इत्येवं चिन्तयामास चित्ते यावद् करोमि किम् ॥४९७॥ तदा गगनमार्गेण चारणमुनिरागमत् । मणि-रत्न-मयाँस्तत्र नत्वा स्तुत्वा जिनेश्वरान् ॥४९८॥ | मुनीन्दु उपविष्टश्च सुन्दरे पार्श्व-मण्डपे । धर्मलाभाशिषं दत्त्वा प्रसन्नो ज्ञान-धारकः ॥४९९॥
अत्रान्तरे नराधीशः प्रमोद-प्रेरितो भृशम् । गुरुं विज्ञापयामास संयोज्य करकुड्मलौ ॥५००॥ | सागरस्येव मे नाथ ! तवास्यशशि दर्शनात् । प्रक्षिप्तं पाप-शैवालं दूरे हि भक्ति-वीचिभिः ॥५०१॥ चारणमुनिना श्रीपालस्य परिचयः दत्तः नृपेण कन्यादत्ता विवाहिता च वन्दित्वा तं निषण्णेषु नृपादिषु सुदेशनाम् । प्रारेभे श्रमणस्तत्र जन्तुक्लेश-विनाशिनीम् ॥५०२॥ तत्त्वत्रयीमयो धर्मः सम्यक्त्व सहितो हितः । आराध्यो मानुषे जन्मे शिवशर्म-निबन्धनम् ॥५०३॥ इह परत्र कल्याण-कर-ईति-भियांहरः । तत्तु द्वि-त्रि-चतुर्भेदैस्तत्त्वं प्रोक्तं जिनर्मुदा ॥५०४॥
蒙蒙蒙蒙蒙蒙蒙蒙蒙蒙眾蒙毁飄飄飄飄飄發飄飄飄飄飄飄飄器
Jain Education Inte
2010-05
For Private & Personal use only
ww.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146