Book Title: Shripalmaynamrut Kavyam
Author(s): Naychandrasagar
Publisher: Agamoddharak Pratishthan

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Page 29
________________ काव्यम् श्रीपालमयणामृत 期跟蹤獵獵靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈强望望露露盟認證 फलञ्च जिनहस्तस्थं तदैवोच्छालितं हि तद् । शासनाधिष्ठितै देवैः वैयावृत्यकरैः यतः ॥१५३॥ | मदनाप्रेरितः स्वामी क्षणाद् गृह्णाति तत्फलम् । स्वयं मालाञ्च गृह्णाति सानंदाद्योतचेतसा ॥१५४॥ भणितं च तया स्वामिन् ! तनुरोगो गतस्तव । जातोऽस्ति येन संयोगो जिनेश्वरकृपावरात् ॥१५५॥ मदना पौषधागारे पत्या सह गता ततः । प्रणम्य मुनिचन्द्रं च शुश्राव धर्मदेशनाम् ॥१५६॥ मानुषत्वं कुलं रूपं सौभाग्यं दीर्घमायुषम् । स्वर्गापवर्गसौख्यानि प्राप्यते पुण्ययोगतः ॥१५७॥ पुण्यं तु लभ्यते धर्मादुपायोऽन्यो न विष्टपे । अतो विहाय मिथ्यात्वं जिनधर्मं ततो भजेत् ॥१५८॥ देशनान्ते गुरुर्वक्ति वत्से कोऽयं नरोत्तमः । सर्वोऽपि निजवृत्तान्तो रुदत्या कथितं तया ॥१५९॥ सा वदति पुनः पूज्या ! नास्ति दुःखं ममापरम् । परन्तु निन्द्यते मिथ्या-द्दग्भिधर्मो जिनोदितः ॥१६०॥ | स्वामिन् कृत्वा प्रसादं मे तदुपायं निवेदय । येन कुष्ठ-महाव्याधिर्लोकवादश्च नश्यति ॥१६१॥ 盟鹽盟盟靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈獵蒙蒙蒙盟 Jain Education Intern 2010_05 For Private & Personal use only Jainelibrary.org

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