Book Title: Shripalmaynamrut Kavyam
Author(s): Naychandrasagar
Publisher: Agamoddharak Pratishthan
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काव्यम्
श्रीपालमयणामृत
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वैदेशिकस्तथाऽज्ञात कुल-शीलोऽस्मि हे नृप ! । कुलं ज्ञात्वा सुता देया नीतिशास्त्रमनुस्मर ॥४२७॥ यतः | ययोरेव समं वित्तं ययोरेव समंकुलम् । तयोर्मैत्री-विवाहश्च न तु पुष्ट-विपुष्टयोः ॥४२८॥ तथा प्रोक्ते नृपो वक्ति ह्याचारैर्ज्ञायते कुलम् । बाहुना कथ्यते वित्त-माकृति र्गुण शंसिनी ॥४२९।।
तस्य तूष्णीकभावेनोमित्य जाननरेश्वरः । सम्मतेः सूचकं मौन मेतदुक्ति-र्न विस्मृता ॥४३०॥ • शीघ्रं संपाद्य सामग्री मुद्वाहिता महा-महै: । महाकालोऽपि भूपालः श्रीपालाय ददात्यलम् ॥४३१॥
गजाश्व-रत्न-माणिक्य-सुवर्णभूषणानि च । वसनानि सुचारूणि मौक्तिकानि बहूनि च ॥४३२॥ रत्नालङ्कारवस्त्रैश्च सम्पूर्णं नव-नाटकम् । यानपात्रं चतुः षष्टि-कूप-स्थंभ-युतं महत् ॥४३३॥ विशाल-यानपात्रादि-सुता-जामातृ रक्षणे । कुशलां सबलां सेनां हेति-भक्ति-पुरसरां ॥४३४॥
(चतुर्भिः कलापम् )
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