Book Title: Shripalmaynamrut Kavyam
Author(s): Naychandrasagar
Publisher: Agamoddharak Pratishthan

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Page 31
________________ काव्यम श्रीपालमयणामृत- || 98060888 पद्माकारे तथा सिद्ध-चक्रे शुभ्रे दलाष्टके । दिक्षु सिद्धादयः स्थाप्याः विदिक्षु दर्शनादिकम् ॥१७॥ विद्याप्रवादतः पूर्वात् सिद्धचक्रं समुदधृतम् । नवनीतं यथा दध्नः सुधाजलनिधेस्तथा ॥१७१॥ तत्त्वे मन्त्रे रहस्ये च परमार्थे पदे तथा । प्रज्ञप्तं भगवद्भिर्हि पदमेतत्परं परं ॥१७२॥ क्षान्तो दान्तो निरारम्भो नर आराधको मतः । विपरीतस्तु विज्ञेयो धर्मतत्त्व-विराधकः ॥१७३॥ | एतस्याराधको भूत्वा चित्तं दुष्टं करोति यः । गुणौघान् बुबुदीकृत्य विनाशयति निश्चितम् ॥१७४॥ अतोऽत्र निर्मलं कार्यं चित्तं गुणगणार्थिभिः । समाराध्यं तपःकर्म विधिना समुपासकैः ॥१७५॥ | आश्विनस्य शुभाष्टम्यां शुचीभूय जिनालये । पूजा कार्या समागत्य सिद्धचक्रस्य भावतः ॥१७६॥ • जल-चन्दन-पुष्पादि-धूप-दीप समन्विता । अक्षत-फल-नैवेद्यात्मिका पूजाऽष्टभेदतः ॥१७७॥ आचाम्लेन तपः कुर्यादेवमष्ट-दिनावधि । नवमे तु दिने कार्ये तपः-पूजे सुविस्तृते ॥१७८॥ एवं चैत्रेऽपि कर्तव्यो ह्यष्टाह्निक-महोत्सवः । सार्ध-चतुर्पु वर्षेषु पूर्णमेतत्तपो भवेत् ॥१७९॥ =靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈靈盤盟缓缓缓强激疆 飄飄飄飄飄飄飄靈强認 Jain Education Inte FRJw.jainelibrary.org 19 For Private & Personal Use Only 201005

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