Book Title: Shripalmaynamrut Kavyam
Author(s): Naychandrasagar
Publisher: Agamoddharak Pratishthan

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Page 43
________________ काव्यम श्रीपाल- • संचिन्तयति सानन्दा सरोमाञ्चा स्वचेतसि । सत्यं सत्यं तु सा सूक्तिः धर्मो रक्षति रक्षितः ॥२८०॥ मयणामृत-18 सहर्षो ज्ञातवृत्तान्तः पुण्यपालोऽपि रूपया । मात्रा पत्न्या श्रयायुक्तं पालं नयति मन्दिरम् ॥२८१॥ पुण्यः ददाति वासांसि धनधान्यादिकानि तं । भुंजानो विविधान् भोगान्श्रीपालस्तत्र तिष्ठति ॥२८२॥ मदना-पितुः पश्चात्तापः श्रीपालसत्कारश्च प्रासाद-पार्श्व रथ्यायां प्रजापालोऽन्यदाऽगमत् । गवाक्षे मदनोपेतं कुमारेन्द्रं स पश्यति ॥२८३॥ प्रतीत्य मदनां चित्ते नृपश्चिन्तितवाँस्तदा । कुलं मदनया नष्टं मदनायत्तयाऽनया ॥२८४॥ कोपान्धेन मयाऽयुक्तं कृतं कामान्धयानया । अविमृश्य कृतं कार्यं हा हाऽयुक्ततरं खलु ॥२८५॥ | एवं प्राप्त-विषादोऽस्ति यावत्चिन्तापरो नृपः । समेत्य पुण्यपालश्च प्रोक्तवान् चरितं स्फुटम् ॥२८६॥ • तच्छ्रुत्वा भूपतिः शीघ्रं तद्धर्म्य संप्रविष्टवान् । सभार्येण कुमारेण सविनयं नमस्कृतः ॥२८७॥ • म्लानमुखो नृपस्तत्र धिग् धिग् वदति मामिति । धन्या त्वं कृतपुण्या त्वं सुष्ठ ज्ञाताऽद्य मे सुता ॥२८८॥ 盤盤靈强强强强强强蹤露露望飄飄盪盪蒙盤 飄飄飄飄飄飄盪盪飄飄飄飄飄靈鬣鬣飄飄飄飄飄盤盤體驗 Jain Education Int! OT 2 01005 For Private & Personal use only POww.jainelibrary.org

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