Book Title: Shripalmaynamrut Kavyam
Author(s): Naychandrasagar
Publisher: Agamoddharak Pratishthan

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Page 19
________________ काव्यम् श्रीपालमयणामृत 認飄飄盪飄飄飄靈獵獵獵獵獵認飄飄飄飄飄飄 सुरसुंदरी मनोरूप वरनिर्णयः जननीपाठको हृष्टौ श्रुत्वैतत्किन्तु नापरे । यतस्तत्त्वोपदेशो हि मुदे न स्यादसदृशाम् ॥६५॥ इतश्च कुरुदेशेऽस्ति नाम्ना शङ्खपुरी शुभा । दमितारिर्नृपस्तत्र प्रजां पाति सुदैववत् ॥६६॥ | अवन्तीपति-सेवार्थं प्रतिवर्षं समेति स: । आगतः किन्तु तत्स्थाने सुतोऽरिदमनाभिधः ॥१७॥ दिव्य-रूपञ्च तं प्रेक्ष्य क्षुब्धा सा सुरसुन्दरी । भृशं स्मर-शरैभिन्ना कामो हि दुरतिक्रमः ॥६८॥ स्मराकुलां सुतां वीक्ष्य नृपोऽपि ज्ञाततन्मना: । प्राह ते कं वरं कुर्याम् कस्तुभ्यं रोचतेऽथवा ॥६९॥ | ततः सा वक्ति चेत्तात ! प्रसन्नोऽसि मयि प्रभो । वर्तते मे मनोदेशे वरत्वेनाऽस्तु मे सदा ॥७०॥ भू-नेत्राऽऽस्य-विकारेण संलक्ष्यान्तर्गतं मनः । प्राह भूपस्तथैवाऽस्तु तवेच्छा पूर्यते मया ॥७१॥ नृपोक्तिमेवमाकर्ण्य प्रोचुस्तथा सभाजनाः । संबंधोऽयमभूदैवाद् लक्ष्मी-विष्णुवदुत्तमः ॥७२॥ मदनागांभीर्यं कर्मवादस्थापना च राज्ञा पृष्टाऽथ सस्नेहं वरा) मदना ततः । लज्जाविवेकतो भूत्वाऽधोमुखी नाह किञ्चन ॥७३॥ 點綴飄飄飄飄飄飄盪盪靈靈靈飄飄飄飄飄盪激盤發發發發器 Jain Education Inter3 2010_05 For Private & Personal use only E wjainelibrary.org Pror

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