Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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८ : मन्त-प्राकृत व्यापार और कोग की परम्परा
नाराम नमजापयोधरहित मारस्य रगाहृ ,
मोभाधी गृहमेधिना-पि कुविधामीयोऽमि नन्दादिभू ॥" मुनि कालू में संस्कृत विद्या का बीज-वपन मघवागणी ने किया था किन्नु उनक स्वर्गवास के पश्चात् उसे अंकुरित होने का अवसर नहीं मिला। इन लोक ने मुनि काल के गुप्त सस्कार ५० एक चोट की। वह चोट इतनी गहरी यी कि फिर वह सकार मो नहीं सका। इस लोक का अर्थ न समझ पाना उनके लिए प्रेरणा का लोत बन गया। उन्होंने भारत का पूर्वाद्ध काय कना शुरु कर दिया, कुछ ही दिनों में वह कंठस्थ कर लिया। उन्ही दिनो डालगणी चूरू पधारे । रायचन्द जी सुराणा मं-कृत विद्या में अति कचि रखते थे। वे चूरू के गुण परिवार के प्रमुग्न व्यक्ति और प्रमुख श्रावक थे । वे पंडित वनश्यामदामजी के पास मंकृत पढा करते थे। मुनि कालू का उनसे परिचय हुआ। उन्होंने पडितजी के सामने मस्कृत पढने को भावना रखी। पडितजी ने उसका समर्थन किया और उनके लिए अपनी सेवा समर्पित की। मुनि कालू की भावना, रायचन्दजी की गामन-भक्ति और पडित वनश्यामजी की श्रद्धा का अद्भुत समन्व्य हुआ और संस्कृत के अध्ययन का कम चालू हो गया। ___'जैनों को सकृत व्याकरण पढाना साप को दूध पिलानी है' इस बार के पडिता ने प० जनयामजी का विरोध शुरु कर दिया । प० घनश्यामजी बगड के रहने वाले थे। भाजीविका के लिए चूरू मे रह रहे थे। बहुत कट्टर क्रियाकण्डिी ब्राह्मण थे। मुनि कालू के साथ उनका ऐसा संस्कार जुडा कि उन्होने किसी भी विरोध की परवाह नहीं की। वे मुनि कालू को पढ़ाने लगे। हमारे संघ मे भी मंस्कृत विद्या के लिए अनुकूल वातावरण नहीं था। आगम सूत्रों के अभ्यास को जितना महत्व दिया जाता था, उतना महत्व संस्कृत के अध्ययन को नहीं दिया जाता था । अवैतनिक रूप में पढ़ाने वाले विद्वान् भी नही मिलते थे। उन समग्र वातावरण को निप्पत्ति हालगणी के इन पदो के द्वारा दुई 'पडितजी खुले मुंह कम पढाएंगे?' रायचन्दजी मुराणा ने कहा 'मुखवस्तिक वाचकर पढ़ा देगे।' इमे नियति ही करना होगा कि पडित जी ने मुखवस्तिका वापर पढाना स्वीकार कर लिया । यदि मुनि काल के साथ उनका कोई पूर्व मस्कार नही होता तो वे इसे स्वीकार नहीं करते । उनके मन में कोई स्वार्थ की प्रेरणा नहीं थी। उनकी अन्त प्रेरणा ही इसमे काम कर रही थी। चूरू-प्रवाम मे मुनि काल मस्कृत का अध्ययन करते रहे। कुछ दिनो बाद वहां से प्रस्थान हो गया । मुनि कालू का अध्यवसाय अपरिवर्तनीय था । स्थान-परिवर्तन होने पर भी वह नहीं बदला | उनके अध्ययन का कम चालू रहा । वीच-बीच मे पहितजी का योग मिलता रहा।