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इन्द्रिय नोइन्द्रिय थकी, पर-उपयोग प्रसार ; प्रत्याहारी स्थिर करो, संत स्वरूप विचार...२ आत्मार्पण सदुपाय छ, सहजानंदघन पक्ष ;
सहज-आत्म स्वरूपए, परमगुरु थी प्रत्यक्ष ..३ पद्मप्रभ चै०६
सत्ताए सम ते छतां, तुझ-मुझ अंतर केम ; अहो पद्मप्रभु! कहो, रहेजे समजुं तेम...१ व्यतिरेक-कारण गही, तूं भूल्यो निज भान ; अन्वय-कारण सेवतां, प्रकटे सहज निधान...२ अन्वय-हेतु ज्यां प्रगट, ते संताधिन सेव ;
अनहद ज्योति जगमगे, सहजानंदघन देव...३ सुपार्श्व चै०७
सहज सुखी नी सेवना, अवर सेव दुख हेत; घन-नामी सत्ता अहो! सुपारस संकेत...१ पारस मणिना फरस थी, लोहा कंचन होय पण पारसता नहिं लहे, संत मणि न सम दोय...२ सुपारस प्रभु सेव थी, सेवक सेव्य समान ;
अनुभव गम्य करी लहो, सहजानंदघन थान...३ चन्द्रप्रभ चै०८
सुण अलि शुद्ध चेतने ! चन्द्र-वदन जिन-चन्द्र; तुं सेवे सर्वागता, निशि-दिन सौख्य अमंद...१
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