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स्व पर सौ जे देखतो, तेने ज्ञान प्रत्यक्ष ;
देखे न सम्यक् सर्वने, तेने ज्ञान परोक्ष...२१८ जीव स्वरूप ज ज्ञान छे, तेथी स्व स्वनो जाण ;
भिन्न ठरे ए जीव थी, जो स्व स्वनो अजाण...२१६ ज्ञान तेज चे जीव ने, जीव ते ज छे ज्ञान ;
तेथी स्व-पर-प्रकाशका, आत्मा दर्शन ज्ञान. २२० परमावधिए जाणिने, लोकालोक स्वरूप
सर्वावधिए निर्विकल्प, सर्वज्ञ लीन स्वरूप. . .२२१ जाणेलं शु जाणवू ! ज्ञप्ति तृप्ति अभंग ,
आप आप मां परिणमे, केवल ज्ञान असंग"२२२ जाणे जुओ वधु छतां, ईच्छा ना सर्वज्ञ ;
तेथी सदा अबंध छ; एम वदे मर्मज्ञ. २२३ भाव मन-परिणाम सह, साभिलाष मुख-वाणि ; - ते बंधन कारण कही, इतर अबंध प्रमाणि..२२४ गमनादिक चेष्टा वधी, वर्ते उदय प्रयोग ;
इच्छा रहित अबंध प्रभु, नहिं भाव-मनोयोग "२२५ आयु-क्षये सौ कर्म-क्षय, शुद्ध बुद्ध प्रभु सिद्ध;
धर्मान्ते लोकांतमां, रहे अकृतिम-पद-मृद्ध २२६ कर्म जन्म जरा मरण, बाधा पीड़ न ज्याई ;
निद्रा मोह क्षुधा तृषा, आर्त रौद्र भय काई.."२२७ देह इन्द्रिय उपसर्ग ना, विस्मय चिंता भुक्ति; .
धर्म-शुक्ल-ध्यानो नहिं, आप्त कहे ए मुक्ति ..२२८ पुनरागमन न ज्यांथकी, अव्याबाध समाधि ;
चिद्घन मूर्ति अस्तित्व छ, वर्जित सकल उपाधि. . .२२६
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