________________
आत्मवश अंतरातमा, परवश ते बहिरात्म 3
___ आत्म-सिद्ध परमातमा, त्रिविध अवस्था आत्म: १६६ वृति-परवश ते हीजडो, स्ववश वृति सतिरूप ;
परम पुरुष-पति भक्तिए, प्रसवे आत्म स्वरूप.. १६७ आत्म-ज्ञान अधिकारी ना, हिजडो अरे! अभाग ;
परमारथ-युद्ध मोरचो, जोई करे नाश भाग...१४८ होय जो श्रमण-लेबासमां, करे संघ विखवाद ;
आवश्यक कंठाग्र पण, तजे न शुकरी स्वाद.१६६ कूकर जेम भौं भौं करे, सुणी सुनाई बात ;
पण ते जीरवी ना शके, करे आत्मनी घात...२०० जो नपुंशकता छोड़िने, जगवी सत्पुरुषार्थ ;
वृत्ति-जये विजयी थया, आवश्यक परमार्थ...२०१ वृति-दोरडु हाथ मां, ज्यां दोरे त्यां जाय ,
ज्यां बांधे त्यां स्थिर रहे, जेम गरीबड़ी गाय.."२०२ मान-सरोवर. हंसलो, करे न विष्टाहार;
तेम मुमुक्षु-वृतियो, भमे न जग-अॅठवार -२०३ रहे स्वरूपाकार नित, साम्य शुक्ल निज धाम ;
यथाख्यात-चारित्रमय, वीतराग विश्राम..२०४ कर प्रतिक्रमण ध्यानमय, स्वरूपाकारे भव्य ! ;
- शक्ति-हीन जो होय तु, तो श्रद्धा कर्तव्य.. २०५ प्रतिक्रमण आलोचना, नियमादिक पच्चखाण ; .. वचनोच्चारण जे क्रिया, ते स्वाध्याय प्रमाण २०६
२४१
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org